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सोमवार, 13 जनवरी 2014

नमन

जस की तस धर दीनी चदरिया
नार्वी नहीं रहे ! 
नये साल के पहले महीने की दस तारीख़ को उनका शरीर शांत हो गया| एक दिन पहले ही फोन पर उनसे तबियत की जानकारी लेने के लिए बात हुई थी। वो काफी दिनों से बीमार चल रहे थे, पर पस्त नहीं थे, हारे हुए नहीं थे। लगातार पढ़ने-लिखने, राजनीतिक घटनाक्रमों पर चर्चा में हिस्सा ले रहे थे। 
नार्वी से मेरा परिचय 1981 में दैनिक विकासशील भारत की शुरुआत के समय हुआ था। वह उस हरावल दस्ते के सक्रिय सदस्य थे, जिसने एक नए और साधनहीन अखबार को कुछ ही महीनों में पाठकों का प्रिय और भरोसेमंद बना दिया था। इस जुझारू और समर्पित टोली में वह अनिल शुक्ल, योगेन्द्र दुबे, राजीव सक्सेना, सुभाष रावत, ईश्वर दयाल, हेमंत लवानिया, आदि गुणी पत्रकारों के साथ काम करते थे। नार्वी का संवेदना से सीधा नाता था। मुझे याद नहीं पड़ता, कभी उन्होंने किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाई हो ? उनके पास संपादकीय और रविवायरीय पृष्ठों का जिम्मा था। वह अपना काम डूबकर करते और दफ्तरों की टुच्ची राजनीति या चकल्लस से दूर रहते। अपने काम और दायित्व के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे |
नार्वी हृदय की बड़ी और क्षुद्र इच्छाओं-तृष्णाओं से ऊपर रहे। उन्होंने अवांछनीय या अनुचित चाह कभी नहीं की। न धन, न पद । विनम्रता और निराभिमानता उनके स्वाभाविक गुण थे। उन्होंने उतने ही पैर पसारे, जितनी बड़ी चादर उनके पास रही। नार्वी ने मानवीय संवेदनाओं में डूबकर कई कहानियां लिखीं। उनकी कुछ गज़लें बहुत ही भावपूर्ण और अर्थपूर्ण हैं। उनकी कहानियों और गज़लों को प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में सम्मानपूर्ण स्थान भी मिला।
नार्वी अचानक हमारे बीच से चले गए और बिलकुल इसी तरह कि : झीनी-झीनी बीनी चदरिया... जस की तस धर दीनी चदरिया। मेरा नमन ।
- हर्षदेव
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