क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी अखबार के मालिक का देहांत हो जाए और अपने ही अखबार में उसका फोटो गलत छप जाए। लेकिन यह कमाल किया हाल में हिंदुस्तान टाइम्स ने। उसने अपने हिंदी सहयोगी दैनिक हिंदुस्तान के कारनामों को पछाड़ते हुए के. के. बिरला के निधन पर जो तस्वीरें प्रकाशित कीं उनमें से एक तस्वीर किसी और की थी। उसके अगले दिन भूल-सुधार करते हुए अखबार ने बताया कि पिछले दिन एक तस्वीर में कैप्शन गलत छप गया था। यानी फिर गलत सूचना दी गई, क्योंकि कैप्शन ही नहीं वह तस्वीर ही गलत थी क्योंकि वह किसी और की थी। अब इस दूसरी गलती के लिए भूल-सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी क्योंकि उसके बाद मालिक के निधन पर संस्थान में अवकाश था।
इतना ही नहीं, निधन वाले दिन हिंदुस्तान टाइम्स, लखनऊ में मार्केटिंग के एक सीनियर अधिकारी की फेयरवेल पार्टी थी जिसे स्थगित नहीं किया गया। इस कार्यक्रम में अखबार के सभी सीनियर लोग मौजूद थे। वहां मिठाई भी खिलाई गई और स्नैक्स भी। विदाई के रस्मी भाषण भी दिए गए। चौंकाने वाली बात यह है कि यह कार्यक्रम संस्थान के चेयरमैन के. के. बिरला की शोक सभा के मुश्किल से आधे घंटे बाद शुरू हुआ। फहमी हुसैन और नवीन जोशी इत्यादि जो आधे घंटे पहले बिरला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे अब कंपनी से जा रहे मार्केटिंग अधिकारी की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे।
हिन्दुस्तानी झड़प
कभी ऐसा होता है क्या? लेकिन हुआ। फसाद की जड़ है ‘नई दुनिया’ जो बड़े पैमाने पर अपना विस्तार करने जा रहा है और जहां हिंदी ‘आउटलुक’ वाले आलोक मेहता को समूह संपादक बनाया गया है। दैनिक ‘हिंदुस्तान’ में आलोक मेहता कई साल संपादक रह चुके हैं इसलिए उन्होंने वहां से भी लोगों को तोड़ना शुरू कर दिया। इतने लोग छोड़ कर जाने लगे कि हिंदुस्तान टाइम्स मैनेजमेंट को चिंता होने लगी है।
संस्थान के मैनेजमेंट ने दो अगस्त को अखबार के सीनियर लोगों की एक मीटिंग बुलाई। उसमें मैनेजमेंट के लोगों ने भाषणबाजी की कि स्टाफ में संस्थान के प्रति वफादारी होनी चाहिए और उन्होंने जानना चाहा कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि इतने लोग छोड़ कर चले जा रहे हैं।
एक जनाब हैं विनोद वार्ष्णेय जो ब्यूरो चीफ हैं। जब उनका नंबर आया तो शायद वे पहले से भरे बैठे थे। उन्होंने कहा कि मैं पैंतीस साल से इस अखबार में काम कर रहा हूं। लेकिन यहां नए-नए लोगों को बाहर से लाकर उन्हें तरक्कियां दी जा रही हैं। उन्होंने बैठक में मौजूद स्थानीय संपादक प्रमोद जोशी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि बरसों पुराने लोग अगर छोड़ कर जा रहे हैं तो केवल इस आदमी की वजह से जा रहे हैं।
बताया जाता है कि इस अखबार में जितनी प्रमोद जी की चलती है उतनी तो मृणाल पांडे की नहीं चलती। मीटिंग में सरेआम इस तरह किसी के उंगली उठाने से प्रमोद जी बेतरह भड़क गए। दोनों में तूतूमैंमैं शुरू हो गई। बड़ी मुश्किल से मौनेजमेंट वालों ने दोनों को शांत किया।
गॉसिप अड्डा उवाच
गासिपअड्डा.काम का मकसद नेपथ्य की उन खबरों को सामने लाना रहा है जिन्हें पारंपरिक मीडिया में जगह नहीं मिलती। वे खबरें चाहे राजनीति की हों या अफसरशाही की अथवा खुद मीडिया की। कितनी ही सूचनाएं हैं जो कभी रोशनी में नहीं आ पातीं, अगर इस साइट ने उन्हें प्रकाशित न किय़ा होता। यह ऐसा मंच है जहां पाठक भी अपना सहयोग देकर हमारे प्रयास में भागीदार बन सकते हैं।
इस प्रयोग का एक शर्मनाक नतीजा यह निकला कि राजनीतिकों की बजाय नेपथ्य की खबरों से मीडिया के कुछ मठाधीशों को ज्यादा परेशानी हुई। वे ऐसी हरकतों पर उतर आए कि इमरजेंसी की याद आ जाए।
23 अक्तूबर की शाम करीब साढ़े छह बजे लखनऊ से दर्जन भर पुलसियों की एक टीम गासिपअड्डा.काम के संस्थापक सुशील कुमार सिंह को गिरफ्तार करने उनके घर जा धमकी। कुछ ऐसी खबरों के एवज़ में जिनमें हिंदुस्तान टाइम्स संस्थान में घटी कुछ घटनाओं का जिक्र था।
सुशील घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी ने उन्हें फोन किया। उन्होंने पुलिसवालों से मोबाइल पर बात करवाई। लखनऊ के गोमती नगर थाने के एक सब-इंस्पेक्टर राजीव कुमार सिंह लाइन पर थे। वे चाहते थे कि सुशील तत्काल घर लौटें। सुशील ने कहा कि वे तो रात दस बजे लौटेंगे। उन्होंने कहा कि अगर पुलिस तुरंत उनसे बात करना चाहती है तो वह प्रेस क्लब आ जाए या फिर पटियाला हाउस अदालत परिसर में एक वकील के चैंबर में। पुलिस टीम इन दोनों जगह आने को तैयार नहीं थी।
पुलिस उनके परिवार को एक घंटे तक धमकाती रही। फिर सुशील के एक मित्र और पड़ोसी शरद गुप्ता उनके घर पहुंचे। तब पहली बार पुलिस ने बताया कि मामला क्या है। शायद यह सोच कर कि शरद गुप्ता भी एक पत्रकार हैं।
पुलिसियों ने बताया कि गासिपअड्डा.काम के खिलाफ हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप के बारे में कुछ लिखने पर उसके लखनऊ दफ्तर के एक अधिकारी बीएस अस्थाना ने एक एफआईआर दर्ज कराई है। इसमें आरोप लगाया गया है कि गासिपअड्डा.काम से किसी ने फोन करके अस्थाना जी से पचास लाख रुपए की मांग की ताकि भविष्य में ऐसी खबरें इस साइट पर न आएं।
जाते-जाते भी पुलिस टीम ने धमकी दी कि वे सुशील कुमार सिंह को उठाने के लिए कभी भी दोबारा आ सकते हैं। एक वकील मित्र ने सुशील को सलाह दी कि किसी हालत में वे पुलिस से अकेले न मिलें। वकील मित्र ने कई बार फोन करके पुलिस टीम को इस बात के लिए राजी करने का प्रयास किया कि वह सुशील से बात करने किसी ऐसी जगह आ जाए जहां वकील मौजूद रहे या फिर मीडिया के कुछ मित्र। मगर पुलिसवाले लगातार जिद करते रहे कि वे तो अकेले सुशील से मिलेंगे।
दो-तीन घंटों में यह खबर मीडिया में फैल गई। अनेक पत्रकारों ने हिंदुस्तान टाइम्स संस्थान और उत्तर प्रदेश पुलिस के इमरजेंसी जैसे रवैये की एकजुट होकर निंदा की। प्रेस क्लब आप इंडिया ने एक प्रस्ताव पास कर सुशील कुमार सिंह पर पुलिस कार्रवाई का विरोध किया है। अब तक देश के पांच प्रेस क्लब ऐसा ही प्रस्ताव पास कर चुके हैं। आल इंडिया वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ने भी एक प्रस्ताव के जरिए अपना विरोध दर्ज कराया है। हम देश-विदेश के उन तमाम साथियों के प्रति आभार प्रकट करना चाहते हैं जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले का विरोध करने में हमारा साथ दिया है।
चार दिन तक दिल्ली में सुशील कुमार सिंह की तलाश करते रहने के बाद आखिरकार पुलिस टीम लखनऊ लौट गई।
गासिपअड्डा.काम इन हथकंडों से घबराने वाला नहीं है। हैरानी की बात है कि ये हथकंडे मीडिया के ही कुछ प्रतिनिधि अपना रहे हैं। इसके बावजूद इस साइट की आवाज को दबाया नहीं जा सकता।
सौजन्य:गॉसिपअड्डा gossipadda
यूपी में माया सरकार का ‘ऑपरेशन मीडिया’
वेब पत्रकार पर एफआईआर ने तरेरी आंखें
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स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम
लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार के हाईकमान के इशारे पर प्रेस के हाथ-पैर तोड़ देने की सरकार की मुहिम शुरू हो गई है। एक सुनियोजित एफआईआर की आड़ में देश के एक बड़े समाचार पत्र प्रकाशन समूह एचटी मीडिया को खुश करने के लिए मायावती सरकार किस नीचता पर उतरी, दिल्ली के एक वरिष्ठ वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह के खिलाफ लखनऊ के गोमती नगर थाने में दर्ज किया गया ब्लैकमेलिंग का हद दर्जे का घटिया और सुनियोजित मुकद्मा इसका ज्वलंत प्रमाण है। इस एफआईआर ने पत्रकार बिरादरी में आक्रोश बरपा दिया है। हो सकता है कि समाचार पत्र समूह को लगा हो कि उसके कार्मिक की एफआईआर दर्ज कर और पत्रकार के घर पुलिस भेजकर मायावती सरकार ने उस पर बहुत उपकार किया है, परंतु उसकी एफआईआर का जिस तरह से इस्तेमाल हुआ उसका असली सच यही है कि इस समाचार पत्र समूह के पीछे खड़े होकर सरकार ने प्रेस पर हमला करने की नाकाम कोशिश की है जिसमें सरकार और इस समाचार पत्र समूह को अभी तक चौराहे पर अपनी छीछालेदर कराने से ज्यादा कुछ नहीं मिला है। किसी पत्रकार के खिलाफ ऐसी एफआईआर दर्ज होने का सीधा मतलब है कि प्रेस को इसी तरह काबू में किया जाए। अनैतिक दबाव बनाने की नापाक योजना में विफल मायावती सरकार अब इस मामले में अपनी खाल बचाने के तरीके ढूंढ रही है। मगर यह मामला इतना आगे बढ़ चुका है कि इसमें पर्दे के पीछे अपनी भूमिका निभा रहे चेहरे पूरी तरह से बेनकाब होंगे।
वेब पत्रकार के खिलाफ दर्ज इस एफआईआर की मंशा प्रथमदृष्टया ही प्रकट हो जाती है। इसमें इससे भी बढ़कर यह हुआ कि मानो इस मुकदमें के दर्ज होने का इंतजार किया जा रहा था। बाद में उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस मामले में इतनी तेजी पकड़ी कि ‘आपरेशन प्रेस’ के चक्कर में सब कुछ उल्टा होता चला गया। इस वेब पत्रकार की खबर लेने के लिए गोमतीनगर पुलिस तुरंत दिल्ली भेज दी गई। इस मुकदमें में पुलिस की ऐसी दिलचस्पी तो इनामी माफियाओं के खिलाफ छापामार कार्रवाई में भी नहीं देखी गई। इस कार्रवाई को लेकर पत्रकारों में उत्तर प्रदेश सरकार की भारी आलोचना के बाद पुलिस लौटा ली गई, लेकिन गोमतीनगर पुलिस ने यह मामला साइबर क्राइम का बताते हुए राजपत्रित अधिकारी से जांच के लिए इसे आगे बढ़ा दिया है। नियम के अनुसार ऐसे कथित अपराध की जांच केवल पुलिस का राजपत्रित अधिकारी ही कर सकता है। पुलिस को अब यह सिद्घ करना है कि इस मामले में साइबर अपराध हुआ है कि नहीं, तभी इसमें कोई कार्रवाई आगे बढ़ सकती है।
इसके लिए पुलिस के राजपत्रित अधिकारियों में कोई बलि का बकरा तलाश किया जा रहा है। फिलहाल अभी यह तय नहीं हो सका है कि वह कौन होगा। क्योंकि सरकार की ‘योजना’ के अनुसार उसे यह सिद्घ करना ही पड़ेगा कि यह साइबर अपराध हुआ है तब फिर यहां से एक और नई राजनीति शुरू होगी। एचटी, आगे, माया सरकार के काम आएगा कि नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता अलबत्ता इस मामले में इस समय उत्तर प्रदेश सरकार के मुंह में छछूंदर जरूर है, जिसका नुकसान के अलावा और कोई भी समाधान नहीं है। बताते हैं कि पत्रकारों का गुस्सा शांत करने के लिए इस विकल्प पर भी विचार चल रहा है कि गोमतीनगर के थानाध्यक्ष और दिल्ली भेजे गए उस दरोगा को सस्पेंड कर दिया जाए। उत्तर प्रदेश में ताबड़तोड़ अपराधों और बदले की भावना के अनगिनत गंभीर मामलों से जानबूझकर बेपरवाह सरकार और राज्य में सर-ए-आम गुंडाटैक्स की तरह से धन वसूली और कमजोरों की जमीनों पर जबरन कब्जा करने के अभियानों से आंख चुराते हुए, सरकार रोज ही ऐसे करम करती जा रही है जिन्हें कभी भी समाज और न्याय की मान्यता प्राप्त नहीं हो सकती।
हम यहां स्पष्ट कर रहे हैं कि स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम, पत्रकार सुशील कुमार सिंह के विवादग्रस्त गौसिप की कोई पैरवी नहीं कर रहा है। चूंकि इस एफआईआर के पीछे की मंशा बिल्कुल किसी की आड़ लेकर प्रेस पर हमला बोलने की है इसलिए इस मामले के सारे प्रमुख पक्ष सामने होने चाहिएं। सुशील कुमार सिंह दिल्ली के एक वरिष्ठ वेब पत्रकार हैं। जनसत्ता में दीर्घकाल तक और हिंदुस्तान सहित दिल्ली के बड़े समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में भी वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं। दिल्ली में पेशेवर पत्रकारिता में उनकी अच्छी छवि भी मानी जाती है। आजकल वेब पत्रकारिता में गौसिपअड्डा वेब पोर्टल के प्रमोटर हैं, यानी अब उन्हें वेब पत्रकार के रूप में जाना जाता है। समाचार पत्र प्रकाशन समूह हिंदुस्तान टाइम्स के सहयोगी प्रकाशन हिंदुस्तान में प्रकाशन समूह के अध्यक्ष केके बिड़ला के निधन पर प्रकाशित एक फोटो फीचर में बिड़लाजी के स्थान पर किसी अन्य फोटो के छपने पर, और भूल सुधार में भी फिर कोई गलती रह जाने पर और लखनऊ में एचटी कार्यालय में बिड़लाजी की शोकसभा के थोड़ी देर बाद संस्थान के एक अधिकारी को फेयरवैल देने के संबंध में गौसिपअड्डा में प्रतिक्रियात्मक गौसिप लिखा गया।
यहीं से एक विवाद की शुरुआत होती है और मामला मीडिया में और खासतौर से दिल्ली मीडिया में तूल पकड़ता जाता है। इस गौसिप को लेकर इनमें आपस में क्या-क्या बातें हुईं, नहीं हुईं या जो भी हुईं, नौबत एफआईआर तक पहुंचती है और हिंदुस्तान टाइम्स के एक कार्मिक बीएस अस्थाना की ओर से लखनऊ के गोमती नगर थाने में एक तहरीर दी जाती है जिसमें वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह पर आरोप लगाया जाता है कि वे रिपोर्टकर्ता से वह गौसिप हटाने के एवज में ब्लैकमेलिंग कर पचास लाख रुपए की मांग कर रहे हैं। यह तहरीर दर्ज की जाती है और तुरंत पुलिस का सुशील कुमार सिंह के खिलाफ ऐक्शन शुरू हो जाता है।
मीडिया जगत में सब जानते हैं कि गंभीर अपराधिक मामलों को छोड़कर बाकी किसी भी मामले में किसी वरिष्ठ पत्रकार या किसी मीडिया संस्थान के पत्रकार के खिलाफ सीधे ऐसी एफआईआर दर्ज करने की राजधानी के गोमतीनगर के थानेदार की हिम्मत नहीं है। लखनऊ में मीडिया के जो वरिष्ठ लोग हैं वे, और राजधानी की पुलिस के जो भी अनुभवी अधिकारी हैं वे भी अच्छी तरह से जानते हैं कि ऐसे मामलों में सामान्यतया किस प्रकार की एहतियात बरती जाती है, जो नहीं बरती गई जिसका सीधा सा मतलब है कि जरूर इस एफआईआर के पीछे राज्य की मुख्यमंत्री मायावती या उनके कैबिनेट सचिव शंशाक शेखर सिंह और राज्य के डीजीपी विक्रम सिंह से प्राप्त किया हुआ ‘आदेश’ ही हो सकता है। इसमें सरकार के किसी मंत्री और निचले स्तर के किसी अधिकारी, जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की भी इतनी हिम्मत नहीं है कि वह राजधानी में अपने स्तर से किसी वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ ऐसी एफआईआर दर्ज करा सकें।
घटनाक्रम से प्रतीत होता है कि गोमतीनगर के थानेदार को यह एफआईआर दर्ज करने का आदेश देने से पहले इसके नफे नुकसान पर जरूर मंथन हुआ और इसे सरकार का फायदा बताकर ‘आप्रेशन मीडिया’ को हरी झंडी दे दी गई। मुख्यमंत्री मायावती की राजनीतिक और प्रशासनिक सफलता के लिए उनके सामने रोज ऐसे ही घटिया फार्मूले पेश करने वाले ये चाटुकार अफसर इसी तरह मुख्यमंत्री को उलझा कर उनकी किरकिरी कराते रहते हैं। कहने वाले कहते हैं कि इस प्रकार की घटिया हरकतों और कपटपूर्ण कार्रवाईयों के लिए कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह या यूपी के डीजीपी विक्रम सिंह का ही दिमाग बहुत चलता है। देखा गया है कि (मायावती को छोड़कर) किसी भी मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जब भी पत्रकारों का ऐसा मामला आया है या आता है तो राज्य सरकार अपने हाथ खड़े कर लेती है। तब फिर वह या तो इस आग से अपने को बहुत दूर रखती है या फिर दोनों पक्षों के बीच में बीच का रास्ता निकालने का प्रयास शुरू कर देती है। इस मामले में तो एफआईआर दर्ज हुई है इसलिए इसे दर्ज करने में सरकार में शीर्ष स्तर पर सहमति नहीं हुई हो, ऐसा हो नहीं सकता।
मायावती को लोकसभा चुनाव लड़ना है और वह पहले से ही मीडिया में अपनी सरकार की लगातार छीछालेदर से परेशान हैं। वे अब और मीडिया की उपेक्षा करने और प्रिंट और इलेक्ट्रानिक संस्थानों से टकराने या उनसे ज्यादा बुराई मोल लेने की स्थिति में नहीं रही हैं। अब तो वेब मीडिया भी आ गया है जो काफी आका्रमकता के साथ चल रहा है और एक माउस के क्लिक भर में दुनिया के किसी भी कोने में सबसे पहले पहुंच रहा है। उसने प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के सामने बड़ी चुनौती पेश कर दी है। वेब मीडिया ने दुनिया भर में अपनी ताकत दिखानी भी शुरू कर दी है जिसका यह एफआईआर ज्वलंत उदाहरण है। उसके असर सामने आ रहे हैं, भले ही मायावती के सलाहकार अभी भी गलतफहमी में हों कि वेब मीडिया अभी कुछ नहीं है। सच तो यह है कि केवल वेब मीडिया की ही दुनियाभर के उस वर्ग तक सीधी पहुंच है जिस तक पहुंचने के लिए ये ही राजनीतिज्ञ और कारपोरेट जगत करोड़ों रुपए पानी की तरह प्रचार और मार्केटिंग पर बहा रहा है।
जरा-जरा सी बात पर प्रेस कांफ्रेंस करने वाली मायावती को फिर भी मीडिया की ही जरूरत रहती है। वे हमेशा मीडिया की उपेक्षा और उसके अपमान का जो प्रदर्शन करती हैं उसका उनको खामियाजा भुगतना ही पड़ रहा है। मायावती के सलाहकारों ने यह एक अच्छी रणनीति समझी होगी कि इस एफआईआर से बाकी पत्रकारों के दिमाग ठीक हो जाएंगे और यह एफआईआर कराने वाला मीडिया संस्थान भी प्रसन्न हो जाएगा कि दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार सुशील कुमार सिंह के खिलाफ उसकी एक ही एफआईआर पर यूपी सरकार ने कमांडो कार्रवाई करते हुए उसे सलाखों के पीछे धकेल दिया। वाकई प्रेस से निपटने का क्या फार्मूला निकाला गया! सरकार ने वेब मीडिया के एक बड़े पत्रकार को औकात दिखा दी है जिससे बाकी पत्रकार अपने आप ही डरकर चुप हो जाएंगे! मगर यह मामला सरकार के लिए उल्टा पड़ा है क्योंकि खबरें लिखने वाले यहां नहीं तो वह कल कहीं और लिखेंगे, इसलिए एक मालिक खबर दबाएगा तो उसे दूसरा छापने के लिए तैयार है। इसलिए घटिया सोच से एक संस्थान को खुश रखने की कीमत सरकार के लिए कितनी महंगी साबित होती है यह एफआईआर उसका एक उदाहरण है, आज पत्रकारों में यह सरकार बेनकाब हो रही है।
सतर्क होइए, और ऐसे कठपुतली बनने से बचिए
यह मामला किसी खबर या गॉसिप पर किसी संस्थान के कर्मचारी की एक वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ एफआईआर को इतना महत्व नहीं देता है जितना उसके उद्देश्य के प्रति सतर्क करता है यह सीधे-सीधे किसी मीडिया संस्थान को खुश रखने का मामला तो है ही साथ ही यह एफआईआर मायावती सरकार के और भी नापाक इरादों की ओर बढ़ती है क्योंकि यह एफआईआर बगैर उच्चस्तरीय अनुमति प्राप्त किए दर्ज नहीं हो सकती। राजधानी में पत्रकारों एवं अखबारी संस्थानों के आपसी और हिंसक विवादों के कई उदाहरण हैं कि जब भी पत्रकारों एवं समाचार संस्थानों के बीच व्यवसायिक प्रतिद्वंद्विता या पेशेवर विवाद या आपसी झगड़ों के मामले राज्य के प्रमुख शहरों या राजधानी के थानों तक पहुंचे तो संबंधित अधिकारियों ने सबसे पहले राज्य के शीर्ष सत्ता नेतृत्व से तत्काल मार्गदर्शन प्राप्त किया तभी उसमें कोई कार्रवाई आगे बढ़ सकी। काफी समय पूर्व राजधानी के दो तीन बड़े प्रकाशन समूहों की अखबार की टैक्सियों को रोकने, अखबारी बंडल छीनने को लेकर जब भी झगड़े झंझट थानों में आए तो उनमें सरकार तटस्थ ही देखी गई और बाद में सुलह से ही ऐसे मामले समाप्त कर दिए गए।
इस मामले में सरकार ने छछूंदर को निगलने की कोशिश करते हुए एक ऐसा प्रयोग किया कि जिसमें सरकार के हाथ भी जल रहे हैं और किसी अखबारी संस्थान को इस तरह से खुश रखने की घटिया रणनीति भी विफल हो गई है। इसीलिए इस एफआईआर मामले को मीडिया में प्रेस को अनैतिक दबाव में लेने की उप्र सरकार की हरकत मान लिया गया है। गोमतीनगर थाने के एक दारोगा राजीव कुमार सिंह के दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार सुशील कुमार सिंह के घर पहुंचकर उन्हें पूछताछ के लिए किसी जगह बुलाने को कहना इतना आसान नहीं है।गोमतीनगर पुलिस शुरू में इस तथ्य से अनभिज्ञ रही होगी कि उसे जहां भेजा जा रहा है वह मामला सामान्य श्रेणी का नहीं है। इसलिए इस मामले में मीडिया कवरेज में यह तथ्य ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसे समझा जाए कि एक दारोगा दिल्ली में किसी पत्रकार के घर में बैठकर उनके बच्चों को अगर धमका रहा है कि सुशील कुमार सिंह जहां भी हो तुरंत उनके सामने आएं तो उसके पीछे उसकी सरकार का कोई सामान्य हाथ नही होगा। जैसा कि पत्रकार सुशील कुमार सिंह की पत्नी का कहना है कि वह दारोगा अपनी हेकड़ी दिखाते हुए कहता है कि सुशील कुमार सिंह के खिलाफ गोमतीनगर थाने में एक अखबारी संस्थान के अधिकारी ने धमकी देकर पचास लाख रुपये मांगने की एफआईआर दर्ज कराई है इसलिए वह फौरन अपने को पुलिस के हवाले करें।
दारोगा वह भी यूपी का और वह भी देश की राजधानी दिल्ली में ऐसी धमकी भरी हरकत पर उतर आए तो मीडिया को यह पता लगाना बहुत जरूरी हो गया है कि वह किसके इशारे पर एक वरिष्ठ पत्रकार के घर जा धमका और मामले की तफ्तीश को बड़ी तत्परता से आगे बढ़ा रहा है। काश पुलिस की यह कार्रवाई और कई गंभीर मामलों में भी इस तरह से सामने आई होती तो उसे पसंद किया जाता लेकिन यहां इस कार्रवाई के पीछे किसी मायाजाल का पता लगाना बहुत जरूरी हो गया है। तब फिर उसी बड़ी शक्ति को बेनकाब किया जाए ताकि सब देखें कि प्रेस की तरफ गंदी नीयत से आंख उठाकर देखने का अंजाम क्या होता है। मीडिया को यह समझ लेना चाहिए कि इस एफआईआर को नज़र अंदाज करने के कई बड़े खामियाजे हो सकते हैं क्योंकि इसमें सरकार का रिपोर्टकर्ता को न्याय प्रदान करने का उद्देश्य कम बल्कि इसकी आड़ में मीडिया को हड़काने और सबक सिखाने का उद्देश्य ज्यादा प्रकट होता है।
लखनऊ में इस एफआईआर ने पत्रकारों को बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है। राज्य की मुख्यमंत्री मायावती की प्रेस कांफ्रेंस या राज्य के किसी नौकरशाह की शौकिया प्रेस ब्रीफिंग में वैसे भी पत्रकारों की भूमिका एक डिक्टेशन लेने भर की रह गई है। इनके संवाददाता सम्मेलनों में चाहे वो लखनऊ में हों और चाहे दिल्ली में, इनसे सवाल करना बर्दाश्त नहीं किया जाता है। सवाल पूछने वाले पत्रकार की अगली प्रेस कांफ्रेंस से छुट्टी करा दी जाती है। इनके संवाददाता सम्मेलनों में अधिकांशतया उन्हीं को बुलाया जाता है जो उनसे सवाल पूछने की न योज्ञता रखते हैं और न हिम्मत। मुख्यमंत्री मायावती की प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों का प्रवेश भी बहुत सीमित कर दिया गया है और एनेक्सी में पंचम तल पर भी सभी पत्रकारों का प्रवेश अघोषित रूप से पूर्णतया अंवाछनीय और वर्जित है।
इस संपूर्ण घटनाक्रम का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है जो कहीं न कहीं पत्रकारों की जिम्मेदारियों और पेशेवर कुशलता समाचार-विश्लेषण या गपशप जैसी सामग्रियों के प्रयोग और प्रस्तुतीकरण पर गंभीरता से सोचने की ओर ले जाता है। यह स्पष्ट है कि जिसे कहीं छिपाने की कोशिश की जा रही है वह ही समाचार है। चाहे वह किसी से भी संबंधित क्यों न हो। मानिए या मत मानिए किंतु यह सत्य है, कि गॉसिप जैसी सामग्री आज की तारीख में मीडिया के लिए प्रासंगिक नहीं रही है। अगर आप के पास कोई तथ्यात्मक जानकारी है तो आप उसे सीधे-सीधे लिखिए नहीं तो उस खबर या सूचना को दूसरों के उपयोग के लिए छोड़ दीजिए। अब बचकर लिखने के ऐसे तरीकोंका जमाना चला गया है, जिन्हें गॉसिप चर्चा या सूत्रों का नाम दिया जाता है। जिसे हम गॉसिप में लिखना चाहते हैं, पाठक उसे हमसे भी ज्यादा अच्छी तरह से समझता है। इसलिए यह सोचना मीडिया के कुछ लोगों के लिए केवल मूर्खता ही है कि वह जिस गॉसिप को अंदर का हाल बताकर इशारों में लिख रहा है वह केवल लिखने वाले को ही पता है और औरों में इसका ज्ञान या पता नहीं है।
पाठकवर्ग को साफ-साफ बताना ही होगा कि सच क्या है। ऐसा सच भी उजागर करने से कोई लाभ नहीं है जिसकी आंच समाज संप्रदाय या किन्हीं की सुरक्षा को नाहक ही खतरे में डालती हो। जिसे हम खबर मान रहे हैं, वह पाठकों के लिए कितनी उपयोगी है और पाठकों से उसके कहां तक सरोकार हो सकते हैं, इसे भी देखना होगा। किसी संस्थान की निजी पार्टी की गॉसिप से आम पाठक वर्ग का रिश्ता ज्यादा स्वीकार्य नहीं लगता है, इसे शायद ही पाठकों की मान्यता मिले,ऐसा ही कार्य एचटी मीडिया संस्थान के कर्मचारी ने गोमतीनगर थाने में एफआईआर दर्ज कराकर किया है, और इन सबसे बढ़कर नीचता का काम उत्तर प्रदेश की पुलिस ने किया जो पत्रकार के घर जा धमकी और उसके परिवार को मानसिक यातनाएं दीं। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जाने का सपना देखने वाली मायावती की सरकार में जब ऐसी बहुउद्देश्ययी एफआईआर दर्ज होंगी तो मायावती के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद देश का और कितना बुरा होगा, कल्पना की जा सकती है।
सौजन्य: स्वतन्त्र आवाज़ swatantraawazप्रस्तुति व कार्टून: टी.सी. चन्दर © T.C. Chander
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