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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

आधार

धोखे का आधार
सचिन कुमार जैन
आधार यानी विशेष पहचान के आधार को समझिए. लोगों को पहचान देने के नाम शुरू हुआ प्रयास महज 3 साल में ही लोगों के लिए विकास से बहिष्कार और योजनाओं से बेदखली का कारण बनने लगा. इसका मकसद सरकार के गरीबों पर किये जाने वाले खर्च को कम करना बन गया है और दूसरा मकसद है समुदाय को नकद धन देना ताकि वे बाज़ार को फायदे रोशन करें.
जनवरी 2009 में विशेष पहचान प्राधिकरण की स्थापना हुई और जुलाई 2009 में नंदन निलेकणी को इसका प्रमुख बना दिया गया. इसके दो मकसद थे- एक यह कि लोगों के पास एक स्थाई पहचान पत्र नहीं है, वह दिया जाएगा और दूसरा इसे योजनाओं से जोड़ जाएगा, ताकि यदि एक व्यक्ति एक बार से ज्यादा किसी योजना का लाभ ले रहा है या नकली हितग्राही बनाए गए हैं, तो उन्हें पहचाना जा सके.
यह पहचान पत्र या क्रमांक देने के लिए हर व्यक्ति को अपनी आँखों की पुतलियों और सभी उँगलियों के निशान देने होंगे. इस प्राधिकरण ने यह हमेशा कहा कि आधार पंजीयन अनिवार्य नहीं है पर अन्य विभाग अपनी योजनाओं का लाभ देने के लिए इसे एक शर्त के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. हुआ भी यही.
राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी क़ानून के तहत खाते खोलने के लिए इसे अनिवार्य कर दिया गया. पेट्रोलियम मंत्रालय गैस सेवा के तहत आधार क्रमांक की मांग करना शुरू कर चुका है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में भी इसका प्रावधान है. सस्ता राशन लेने के लिए भी इसे अनिवार्य बनाया जा रहा है.
हमारे प्रधानमंत्री ने वर्ष 2010 में नेशनल आइडेंटीफिकेशन अथारिटी ऑफ इंडिया विधेयक राज्यसभा में पेश किया, इसमें यह भी नहीं बताया गया था कि वे किस हैसियत से यह विधेयक पेश कर रहे हैं. इस विधेयक को वित्त विभाग की संसद की स्थाई समिति ने खारिज ही कर दिया. पर प्राधिकरण को कोई फर्क नहीं पड़ा.
वर्ष 2009-10 में इसके लिए 120 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान था, जो 2010-11 में बढ़ कर 1900 करोड़ कर दिया गया. दिसम्बर 2012 तक प्राधिकरण 2300.56 करोड़ रूपए खर्च कर चुका था. जानी मानी क़ानून विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर उषा रामनाथन कहती हैं- “बिना विभाग वाले और बिना किसी कानूनी प्रावधान के चल रहे इस प्राधिकरण और काम पर 45 हज़ार से डेढ़ लाख करोड़ रूपए तक खर्च होने का अनुमान है.”
हम सब जानते हैं कि बैंक में खाता खोलते समय हम अपना फोटो भी लगाते हैं, हस्ताक्षर भी करते हैं और जरूरत पड़ने पर अंगूठे का निशान लगाते हैं. यानी हम जैविकीय पहचान चिन्ह बैंक को उपलब्ध करवाते ही हैं. महत्वपूर्ण यह है कि इन चिन्हों का उपयोग केवल स्थानीय स्तर पर केवल बैंकिंग व्यवहार के लिए ही होता है; इसके विपरीत आधार पंजीयन के लिए आँखों की पुतली और सभी उंगलियों के निशान इसलिए लिए जा रहे हैं ताकि हर व्यक्ति एक किस्म की सरकारी निगरानी में आ सके. किसी भी तरह के नकद हस्तांतरण को आधार यानी विशेष पहचान पंजीयन को जरूरी शर्त के रूप में लागू नहीं किया जाना चाहिए.
उल्लेखनीय है कि विशेष पहचान प्राधिकरण ने स्वयं यह घोषित किया है कि आधार पंजीयन अनिवार्य नहीं बल्कि स्वैच्छिक है. संसद की स्थाई समिति ने भी विशेष पहचान क्रमांक और प्राधिकरण पर लाये गए विधेयक को पूरी तरह से खारिज कर दिया है परन्तु फिर भी भारत सरकार इसे योजनाओं का लाभ लेने के लिए एक अनिवार्य शर्त के रूप में लागू कर रही है. अलग-अलग तरीकों से यह सन्देश दिया जा रहा है कि यदि व्यक्ति ने विशेष पहचान क्रमांक नहीं लिया तो उसे सरकार की कोई योजना का लाभ नहीं मिलेगा.
आधार के विस्तार के लिए यह प्रचारित किया जा रहा है इससे गरीबों और झुग्गीवासियों के बैंक खाते खुलेंगे और उन्हें आवास-फोटो सहित पहचान पत्र मिल सकेगा; जबकि वास्तविकता यह है कि आवेदकों से यह कहा गया है कि वे आधार पंजीयन के लिए अपना निवास और फोटो पहचान पत्र लगाएं. यह कोई नहीं बता रहा है कि लाखों आश्रय विहीन लोग अपनी पहचान कहाँ से खोज कर लाएं!
देश में अब तक हुए आधार पंजीयन में ऐसा कोई नहीं है जिसका पंजीयन बिना प्रमाण के हुआ हो. यानी सच्चाई यह है कि भारत सरकार का मकसद लोगों को पहचान पत्र देना नहीं, निगरानी के लिए एक डाटा बेस तैयार करना है. मुंबई, जहाँ देश की सबसे ज्यादा झुग्गीवासी जनसँख्या है, में गरीबों में यह सन्देश दिया गया है कि यदि आधार पंजीयन नहीं करवाया तो उन्हें बस्ती से बाहर निकाल दिया जाएगा और बिजली, पानी समेत हर सेवा वापस ली जा सकती है.
एक तरह से देश में गरीबों को भयाक्रांत कर दिया गया है, वे आधार की अदालत में अपराधी की तरह खड़े हों और हमेशा के लिए अपनी निजी नागरिक स्वतंत्रता राज्य के निगरानी तंत्र के सुपुर्द कर दें. और जन विरोधी नीतियों को लगातार लागू कर रही सरकार को अपने देश के सभी नागरिकों में अपराधी और आतंकवादी नज़र आता है; इंसान नहीं!
आधार या विशेष पहचान पंजीयन को प्रचारित करने के पीछे नंदन निलेकनी के नेतृत्व वाला प्राधिकरण यह तर्क देता है कि देश में करोड़ों लोगों के पास स्थाई पते और फोटो लगे पहचान पत्र नहीं हैं, आधार इस कमी को पूरा कर देगा. सवाल यह है कि पहचान के लिए ऐसे चिन्ह लिए जाने की क्या जरूरत है जो मूलतः अपराधियों की निगरानी के लिए लिए जाते हैं. इस काम के लिए आँखों की पुतलियों और हाथों की उँगलियों के सभी निशान लिए जा रहे हैं.
आधार प्राधिकरण का तर्क यह रहा है कि ये दोनों निशान कभी नहीं बदलते हैं. जबकि वैज्ञानिक अध्ययन बता रहे हैं कि तीन से पांच सालों में आँखों की पुतलियों के निशान बदल जाते हैं. इसी तरह 5 सालों के बाद उंगलिओं के निशान भी बदल जाते हैं. ऐसे में सवाल तो खड़ा होता ही है कि इस पूरी कवायद का मकसद क्या है?
भारत सरकार को यह पता चलने लगा है कि नागरिकों पर निगरानी रखने के लिए ये दो निशान पर्याप्त नहीं हैं, तो अब इसके लिए डीएनए का चित्र लिए जाने के प्रस्ताव पर बात हो रही है. इतना ही नहीं सरकार को यह भी पता नहीं है कि भारत में 1.20 करोड़ लोगों को कुपोषण जनित मोतियाबिंद है, उनकी आँखों की पुतलियों के निशान नहीं लिए जा सकते हैं और हर रोज मजदूरी करने वाले मजदूरों, जिनकी संख्या लगभग 15 करोड़ है, की उँगलियों के निशान भी लगभग घिस से गए हैं. क्या वे अपने सही जैविक चिन्ह दे पायेंगे और यदि उनका पंजीयन हो भी गया तो क्या उन्हें उन योजनाओं का लाभ मिल पायेगा, जिन्हें आधार से जोड़ा जा रहा है! जवाब है-नहीं! क्योंकि 45 प्रतिशत संभावना यह है कि किसी न किसी कारण से व्यक्ति की उँगलियों के निशान का आधार में दर्ज निशान से मिलान न हो. वास्तव में ऐसा नहीं है कि आधार से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार होगा, सच यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आधार पंजीयन को अनिवार्य बना कर सरकार अपना मकसद पूरा करना चाहती है.
प्राधिकरण यह मानकर चल रहा है कि जैविक पहचान चिन्ह (बायोमेट्रिक चिन्ह) किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान को सुनिश्चित करते हैं, यानी एक चिन्ह का एक ही व्यक्ति होगा. अमेरिका की सुरक्षा एजेंसी सीआईए और डिफेन्स एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी के लिए अमेरिका की नेशनल रिसर्च कौंसिल ने एक अध्ययन करके बताया कि बायोमेट्रिक चिन्ह प्राकृतिक रूप से बदलते हैं. इस चिन्ह पर आधारित तकनीकें छोटे स्तर पर तो काम कर सकती हैं पर यदि इनका बड़े स्तर पर उपयोग किया गया तो यह बड़ी समस्याएं खड़ी कर सकती है.
आज बायोमेट्रिक चिन्ह किसी की पहचान की संभाव्यता है, जबकि तकनीक इसके ठीक विपरीत चलती है और मानती है कि बायोमेट्रिक चिन्ह मानक स्थिर होते हैं. 17 जुलाई 2010 को इकोनोमिक टाइम्स ने लिखा कि आधार लाखों लोगों की उँगलियों के निशान उतने साफ़ तरीके से दर्ज नहीं कर सकेगा, जितना कि वह अपने प्राधिकरण के चिन्ह में दिखाता है क्योंकि कठोर श्रम करते हुए मजदूरों की उँगलियों के निशान ही खत्म हो गए हैं.
इन निशानों को तकनीकी भाषा में कम गुणवत्ता वाले निशान कहा जाता है. इनका यदि पंजीयन हो भी गया तो ये सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से बाहर हो जायेंगे; निश्चित रूप से भारत की सरकार चाहती भी यही है. प्राधिकरण की बायोमेट्रिक समिति ने भी यह चेतावनी दी है कि 5 करोड़ लोगों (अब तक बायोमेट्रिक चिन्ह लिए जाने वाले लोगों की यही अधिकतम संख्या है) के बायोमेट्रिक चिन्ह लिए जाने के बाद क्या ये चिन्ह विशेष रह जाते हैं, इसके कोई अध्ययन नहीं हुए हैं; और भारतीय सन्दर्भ में निशानों की गुणवत्ता और सटीकता का कोई अध्ययन नहीं हुआ है. यह अध्ययन जरूरी है क्योंकि यहाँ लोग चाय बागानों में काम करते हैं, समुद्र और नदियों में काम करते हैं, मजदूरी करते हैं, उनकी उँगलियों के निशान कितने सटीक होंगे, इस सवाल का उत्तर खोजा जाना जरूरी है.
पंजीयन के दौरान यह घोषणा पत्र भरवाया जाता है कि आवेदक के द्वारा दी गयी सूचनाएं प्राधिकरण उपयोग में ला सकता है और इनका उपयोग जन-कल्याणकारी योजनाओं-वित्तीय सेवाओं के लिए किया जा सकता है. हर व्यक्ति की जानकारी हर उस विभाग के लिए उपलब्ध रहेगी जो अपनी योजनाओं में हितग्राहियों की जांच करना चाहता है और जो पंजीयन कर रहे हैं. यह पूरी जानकारी इलेक्ट्रानिक रूप में उपलब्ध रहेगी, जिसकी सुरक्षा करना कठिन ही होगा. यानी हमारी निजी जानकारियाँ गोपनीय नहीं रह पाएंगी.
अब इन दो विषयों को जोड़ कर देखिये. सच यह है कि आधार की योजना इस सोच पर टिकी हुई है कि हम विभिन्न योजनाओं में सेवाएं और सीधे अधिकार देने के बजाये नकद राशि देंगे. इस सोच को राहुल गांधी ने सूचना क्रान्ति की बाद की दूसरी क्रान्ति का नाम दिया और कांग्रेस ने “आपका पैसा आपके हाथ” के नारे के साथ 15 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में 4 लाख लोगों को हर माह पेट भरने के लिए गेहूं, चावल, डाल, तेल, ईंधन, फल खरीदने के लिए 600 रूपए देने की शुरुआत की. और फिर 1 जनवरी 2013 से आधार आधारित नकद हस्तांतरण योजना की शुरुआत कर दी.
ये 4 लाख वो लोग हैं, जो गरीब हैं पर जिन्हें गरीबी की रेखा में शामिल नहीं किया गया; क्यों; इसका कोई जवाब नहीं है. वित्त मंत्री पी चिदंबरम नकद हस्तांतरण की योजना के बारे में कहते हों – जादुई से कम नहीं. सरकार मानती है कि हम इससे भ्रष्टाचार कम करेंगे, पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कह दिया है कि जब तक बैंकों का ढांचा खड़ा न हो तब तक नकद के बारे में ना सोचें. विशेष पहचान प्राधिकरण भी स्थायी समिति के सामने गया और सुझाव दिया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के लाभों को आधार से जोड़ा जाए, पर इस समिति ने भी इस सुझाब की अनुशंसा नहीं की.
साभार: रविवार

रविवार, 21 अप्रैल 2013

३डी मोदी

नरेन्द्र मोदी और आधुनिक तकनीक 
पिछले गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान 10 दिसम्बर, 2012 को मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने त्रिआयामी यानी 3डी तकनीक का उपयोग करके एक साथ 53 स्थानों पर चुनाव सभाओं को सम्बोधित कर सारे
संसार को आश्चर्यचकित कर दिया। इस सम्बोधन को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल किया जा चुका है। चुनाव प्रचार में 3डी होलोग्राफिक प्रोजेक्शन तकनीक का उपयोग भारत ही नहीं सारे संसार के लिए एक अनूठी बात है। इस तकनीक का प्रयोग भारत में तो किसी भी क्षेत्र में पहली बार हुआ है।
इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी कि मोदी जी चुनाव प्रचार में प्रत्येक क्षेत्र के मतदाताओं तक सीधे पहुँचने के लिए कटिबद्ध थे। इस तकनीक का परीक्षण 18 नवम्बर 2012 को किया गया था, जब मोदी ने गुजरात के चार शहरों को 3डी तकनीक द्वारा जोड़ा। यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा और यह निश्चय किया गया कि इसका अधिकाधिक प्रयोग चुनाव प्रचार में किया जाएगा। इसी कड़ी में कई बार इसका प्रयोग किया गया, जिनमें
10 दिसम्बर का अन्तिम प्रयोग भी शामिल था। लेकिन यह पहली बार नहीं था जब मोदी जी ने नवीनतम तकनीकी के प्रति अपने लगाव को प्रकट किया हो। वास्तव में मोदी जी के मार्गदर्षन में गुजरात का जो चहुँमुखी विकास हुआ है, उसमें नवीनतम तकनीकों का प्रयोग प्रायः प्रत्येक स्तर पर किया गया है। मोदी जी का दर्शन है नवीनतम तकनीकों का प्रयोग करते हुए अपनी प्रतिभाओं का उपयोग गुजरात और देश के विकास के लिए करना। उन्होंने इसके लिए यह सूत्र दिया है- IT+IT=IT
यहाँ पहली IT का तात्पर्य इंडियन टेलेंट अर्थात् भारतीय प्रतिभाओं से है, दूसरी IT का तात्पर्य इनफॉर्मेशन 
टैक्नोलाजी अर्थात् सूचना प्रौद्योगिकी से है और तीसरी IT का तात्पर्य इंडिया टुमारो अर्थात् भविष्य के भारत
से है। इस सूत्र का तात्पर्य है कि भारतीय प्रतिभाओं और सूचना प्रौद्योगिकी का समेकित उपयोग करते हुए
अपने देश को विकास की अन्तिम सीढ़ी तक ले जाना। 
मोदी का मानना है कि उन्नत तकनीकी से शासन और नागरिकों के बीच के सम्बंध नया रूप ले रहे हैं और नागरिकों की समस्याओं को हल करने में शासन अधिक सक्षम हो गया है। यह एक द्विमार्गी प्रक्रिया है। एक तो, नागरिकों को सूचनाएँ कई माध्यमों द्वारा उपलब्ध करायी जा रही हैं। इससे पहले नागरिक पांच साल में केवल एक बार नेताओं के सम्पर्क में आते थे, जब चुनाव होते थे। लेकिन अब वह सरकारी नीतियों का एक भाग हो गया है और उस पर कभी भी अपनी राय रख सकता है, सवाल उठा सकता है और सम्पर्क कर सकता है। दूसरे, उन्नत तकनीकी का प्रयोग करके शासन भी नागरिकों तक कम समय में और सुविधापूर्वक पहुँच सकता है, जैसे कि चुनाव प्रचार में 3डी तकनीकी से मोदी जी गुजरात प्रदेश के कोने-कोने तक पहुँच गये। प्रदेष के विकास में तकनीकी के प्रयोग को बढ़ावा देने और नयी तकनीकें विकसित करने के लिए मोदी जी ने गुजरात इंटरनेशनल वित्त तकनीकीनगर, संक्षेप में गिफ्ट (GIFT) प्रोजेक्ट की आधारशिला रखी। इस प्रोजेक्ट की शुरूआत सन् 2007 में हुई थी। उनके सपनों का यह शहर अब आकार लेने लगा है और उसके निवासी उसमें आने लगे हैं। 
साभार: आउटलुक
यह एक विषेष आर्थिक जोन (SEZ) है, जिसका पहला चरण साढ़े तीन साल में पूरा हो जाएगा। भारत के लिए अनूठे इस शहर में अनेक विशेषताएं होंगी। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी के आधारभूत ढाँचे पर नजर रखने के लिए एक नियंत्रण केन्द्र होगा। यह केन्द्र किसी भी आकस्मिक संकट के समय तत्काल आवश्यक कार्यवाही करेगा। इसमें एयर कंडीशनिंग की जगह ऊर्जा की 90 प्रतिषत तक बचत करने वाला शीतलन तंत्र होगा। इसमें कूड़े को स्वचालित रूप से छाँटा जाएगा और अनुपयोगी भाग को तेजी से किसी दूरस्थ केन्द्र तक भेजकर निस्तारित किया जाएगा। अभी तक भारत के किसी भी शहर में ऐसी शीतलन और कूड़ा निस्तारण व्यवस्था नहीं है। इतना ही नहीं, इसमें कूड़े को जलाकर बिजली उत्पन्न की जाएगी, जिसका उपयोग शीतलन और अन्य कार्यों में किया जा सकता है। इस शहर की स्थापना करने का एक उद्देश्य मुम्बई, गुड़गाँव और बंगलौर तक से कम्पनियों को गुजरात में लाना है। लेकिन यह तो मामूली बात है। भारत के कई बैंकों, सिंगापुर की कम्पनियों, सरकारी एजेंसियों ने इस शहर के विकास और इसमें अपने कार्यालय स्थापित करने में रुचि दिखायी है। इतना ही नहीं, लन्दन और टोकियो के स्टॉक एक्सचेंजों ने इस शहर में अपने कार्यालय खोलने की इच्छा प्रकट की है। इस प्रकार यह शहर तकनीकी के साथ फाइनेंस का एक प्रमुख केन्द्र बनने जा रहा है।
इस शहर की स्थापना से आगामी 10 वर्ष में कम से कम 10 लाख प्रत्यक्ष और इससे भी अधिक अप्रत्यक्ष रोजगार उत्पन्न होंगे। इससे देश में विदेशी पूँजी के आगमन का मार्ग प्रशस्त होगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है
कि हांगकांग, दुबई, चीन, मलेशिया, लन्दन (ब्रिटेन) और न्यूयार्क (अमेरिका) में स्थापित ऐसे ही वित्तीय केन्द्र अपने-अपने देशों के सकल घरेलू उत्पादन में 5 से 60 प्रतिशत तक का योगदान देते हैं। उन्नत तकनीकों के उपयोगों के बारे में मोदी जी के ये विचार बहुत प्रेरणाप्रद हैं- ”अपने आप में तकनीकी न तो अच्छी होती है और न बुरी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम उसका उपयोग और समर्थन किस रूप में कर रहे हैं। राजनीति में तकनीकी जहाँ विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, वहीं तकनीकी में राजनीति को आने से हमें प्रयत्नपूर्वक रोकना होगा। तकनीकी को यदि सही रूप में प्रयोग किया जाए, तो यह एक बहुत शक्तिशाली उपकरण हो सकती है, जो समाज का आमूल-चूल परिवर्तन करने में समर्थ है। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम आम आदमी को किस प्रकार अच्छे से अच्छे ढंग से तकनीकी से जोड़ सकते हैं। हमें ऐसे समाधानों की आवश्यकता है, जिनका उपयोग करके हम स्थानीय भाषाओं में आम जनता से जुड़ सकें। हमें अपनी तकनीकी सम्बंधी नीतियों और नवोन्मेशन को एक अधिक उपयोगी स्तर तक उठाना होगा, जहाँ हम आम आदमी को शक्तिशाली बनाते हुए विकास के रास्ते पर सफलतापूर्वक चल सकें।“ 
सुशासन के लिए तकनीकी का उपयोग करने में नरेन्द्र मोदी की गहरी रुचि जगजाहिर है। अच्छे और कम खर्चीले शासन के लिए ई-गवर्नेंस का उपयोग सरल और प्रभावी होता है। हाल ही में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस पुरस्कारों में अकेले गुजरात की झोली में लगभग एक चौथाई पुरस्कार आए। इनके अलावा कम्प्यूटर सोसाइटी ऑफ इंडिया ने ई-गवर्नेंस के क्षेत्र में मोदी जी के योगदान के लिए उन्हें ई-रत्न उपाधि देकर सम्मानित किया। इसके साथ ही उनको ‘उत्कृष्टता पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया। इन पुरस्कारों के अतिरिक्त नरेन्द्र मोदी जी की सरकार को भारत सरकार द्वारा एक सम्मेलन में ‘सर्वश्रेष्ठ नागरिक सरकार’ का पुरस्कार भी प्रदान किया जा चुका है।
साभार: विजय कुमार सिंघल, युवा सुघोष 
http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=ereIJXSMRgw 


रविवार, 14 अप्रैल 2013

धोखाधड़ी

शाकाहारी हो जाएं सावधान 
दैनिक उपयोग की वस्तुओं में पशु चर्बी और अन्य पशु अवयवों की मिलावट का गोरखधंधा www.youtube.com/watch?v=tgQuXz5kVHc
http://www.youtube.com/watch?v=uru3hk35S-A
निम्नलिखित ई-नम्बर्स सूअर की चर्बी (Pig Fat )को दर्शाते हैं: आप चाहे तो google पर देख सकते है इन सब नम्बर्स को:-
E100, E110, E120, E 140, E141, E153, E210, E213, E214, E216, E234, E252,E270, E280, E325, E326, E327, E334, E335, E336, E337, E422, E430, E431, E432, E433, E434, E435, E436, E440, E470, E471, E472, E473, E474, E475,E476, E477, E478, E481, E482, E483, E491, E492, E493, E494, E495, E542,E570, E572, E631, E635, E904. 
(१) सूअर/पशुओं की चर्बी/ हड्डियों का चूर्ण (पाउडर) अन्य कई दैनिक उपयोग की सामग्री के साथ-२ इन उत्पादों में भी इस्तेमाल किया जाता है:- टूथ पेस्ट , शेविंग क्रीम, चुइंगम , चोकलेट, मिठाइयाँ , बिस्किट्स , कोर्न फ्लेक्स, केक्स, पेस्ट्री, कैन/टीन के डिब्बों में आने वाले खाद्य पदार्थ फ्रूट टिन, साबुन. मैगी, कुरकुरे, खतरनाक खानपान को जानिए और सभी को बताइए | अधिकतर चॉकलेट Whey Powder से बनाई जाती हैं|
(2) Cheese बनाने की प्रक्रिया में Whey Powder एक सहउत्पाद है| अधिकतर Cheese भी युवा स्तनधारियों के Rennet से बनाया जाता है| Rennet युवा स्तनधारियों के पेट में पाया जाने वाला एंजाइमों का एक प्राकृतिक समूह है जो माँ के दूध को पचाने के काम आता है| इसका उपयोग Cheese बनाने में होता है| अधिकतर Rennet को गाय के बछड़े से प्राप्त किया जाता है, क्योंकि उसमे गाय के दूध को पचाने की बेहतर प्रवृति होती है| (मित्रों यहाँ Cheese व पनीर में बहुत बड़ा अंतर है, इसे समझें|) आजकल हम भी बच्चों के मूंह चॉकलेट लगा देते हैं, बिना यह जाने की इसका निर्माण कैसे होता है? दरअसल यह सब विदेशी कंपनियों के ग्लैमर युक्त विज्ञापनों का एक षड्यंत्र है| जिन्हें देखकर अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग इनके मोह में ज्यादा पड़ते हैं| आजकल McDonald, Pizza Hut, Dominos, KFC के खाद्य पदार्थ यहाँ भारत में भी काफी प्रचलन में हैं| तथाकथित आधुनिक लोग अपना स्टेटस दिखाते हुए इन जगहों पर बड़े अहंकार से जाते हैं| कॉलेज के छात्र-छात्राएं अपनी Birth Day Party दोस्तों के साथ यहाँ न मनाएं तो इनकी नाक कट जाती है| वैसे इन पार्टियों में अधिकतर लडकियां ही होती हैं क्योंकि लड़के तो उस समय बीयर बार में होते हैं| मैंने भी अपने बहुत से मित्रों व परिचितों को बड़े शौक से इन जगहों पर जाते देखा है, बिना यह जाने कि ये खाद्द सामग्रियां कैसे बनती हैं?
(3) यहाँ जयपुर में ही मांस का व्यापार करने वाले एक व्यक्ति से एक बार पता चला कि किस प्रकार वे लोग मांस के साथ साथ पशुओं की चर्बी से भी काफी मुनाफा कमाते हैं| ये लोग चर्बी को काट काट कर कीमा बनाते हैं व बाद में उससे घी व चीज़ बनाते हैं| मैंने पूछा कि इस प्रकार बने घी व चीज़ का सेवन कौन करता है? तो उसने बताया कि McDonald, Pizza Hut, Dominos आदि इसी घी व चीज़ का उपयोग अपनी खाद्य सामग्रियों में करते हैं वे इसे हमसे भी खरीदते हैं|
(4) इसके अलावा सूअर के मांस से सोडियम इनोसिनेट अम्ल का उत्पादन होता है, जिससे भी खाने पीने की बहुत सी वस्तुएं बनती हैं| सोडियम इनोसिनेट एक प्राकृतिक अम्ल है जिसे औद्योगिक रूप से सूअर व मछली से प्राप्त किया जाता है| इसका उपयोग मुख्यत: स्वाद को बढाने में किया जाता है| बाज़ार में मिलने वाले बेबी फ़ूड में इस अम्ल को उपयोग में लिया जाता है, जबकि १२ सप्ताह से कम आयु के बच्चों के भोजन में यह अम्ल वर्जित है|
(5) इसके अतिरिक्त विभिन्न कंपनियों के आलू चिप्स व नूडल्स में भी यह अम्ल स्वाद को बढाने के लिए उपयोग में लाया जाता है| नूडल्स के साथ मिलने वाले टेस्ट मेकर के पैकेट पर इसमें उपयोग में लिए गए पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा होता| Maggi कंपनी का तो यह कहना था कि यह हमारी सीक्रेट रेसिपी है| इसे हम सार्वजनिक नहीं कर सकते|
(6) चुइंगम जैसी चीज़ें बनाने के लिए भी सूअर की चर्बी से बने अम्ल का उपयोग किया जाता है| इस प्रकार की वस्तुओं को प्राकृतिक रूप से तैयार करना महंगा पड़ता है अत: इन्हें पशुओं से प्राप्त किया जाता है|
(7) Disodium Guanylate (E-627) का उत्पादन सूखी मछलियों व समुद्री सेवार से किया जाता है, इसका उपयोग ग्लुटामिक अम्ल बनाने में किया जाता है|
(8) Dipotassium Guanylate (E-628) का उत्पादन सूखी मछलियों से किया जाता है, इसका उपयोग स्वाद बढाने में किया जाता है|
(9) Calcium Guanylate (E-629) का उत्पादन जानवरों की चर्बी से किया जाता है, इसका उपयोग भी स्वाद बढाने में किया जाता है|
(10) Inocinic Acid (E-630) का उत्पादन सूखी मछलियों से किया जाता है, इसका उपयोग भी स्वाद बढाने में किया जाता है|
(11) Disodium Inocinate (e-631) का उत्पादन सूअर व मछली से किया जाता है, इसका उपयोग चिप्स, नूडल्स में चिकनाहट देने व स्वाद बढाने में किया जाता है|
(12) इन सबके अतिरिक्त शीत प्रदेशों के जानवरों के फ़र के कपडे, जूते आदि भी बनाए जाते हैं| इसके लिए किसी जानवर के शरीर से चमड़ी को खींच खींच कर निकाला जाता है व जानवर इसी प्रकार ५-१० घंटे तक खून से लथपथ तडपता रहता है| तब जाकर मखमल कोट व कपडे तैयार होते हैं और हम फैशन के नाम पर यह पाप पहने मूंह उठाए घुमते रहते हैं| यह सब आधुनिकता किस काम की? ये सब हमारे ब्रेनवाश का परिणाम है, जो अंग्रेज़ कर गए| बेईमान लोगों ने आज अपनी सारी सीमाएं लांघ दी हैं सामाजिक जीवन में हिंसा और मांसाहार का बोलबाला है. जो शाकाहारी हैं उनको जाने-अनजाने मांसाहार करने को मजबूर किया जा रहा है. दैनिक उपयोग की वस्तुओं में पशु चर्बी और अन्य पशु अवयवों की मिलावट का गोरखधंधा बिना रोकटोक के जारी है और आम आदमी असहाय सा खड़ा दूसरों को ताक रहा है और सोच रहा है कि कोई तो आएगा जो इस षड्यंत्र को रोकेगा. जीवन की भागदौड़ में लोग इतने उलझे हैं कि उन्हें इस सब के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है. यदि आप ऐसे लोगों को बताएँ कि अमुक वस्तु में किसी जानवर की चर्बी,खून या अन्य कोई पशु अंग मिलाया गया है या जानवर या किसी निरीह पक्षी को मारकर या कठोर पीड़ा देकर फलां सौंदर्य प्रसाधन (कोस्मैटिक ) बनाया गया है तो उनके जवाब मन को बड़ी पीड़ा पहुँचाने वाले होते हैं : भारत में खाद्य-सामग्री पर हरा वृत्त ‘ग्रीन सर्कल’ (शाकाहार के लिए )/ कत्थई वृत्त ‘ब्राउन सर्कल’ (मांसाहार के लिए ) निशान लगाने का क़ानूनी नियम है ताकि ग्राहक को पता चल सके कि अमुक आइटम शाकाहारी है या मांसाहारी. पर इस क़ानूनी नियम का भी दुरूपयोग किया जा रहा है, बड़ी-बड़ी और नामी कम्पनियाँ भी इसमें शामिल हैं, लेकिन अब तक सरकार की ओर से कोई कदम उठाया गया हो, ऐसा सुनने-पढ़ने में नहीं आया, जबकि अक्सर समाचार-पत्रों, टी.वी में पढ़ने-सुनने में आता रहता है कि चोकलेट -बिस्किट-चिप्स-वेफर्स आदि में पशु चर्बी-अंग आदि मिलाये जाते हैं और हम शाकाहारी हरा निशान देखकर ऐसे डिब्बाबंद खाद्यपदार्थ उपयोग में ले लेते हैं जबकि ई-नम्बर्स (ये संख्याएँ यूरोप में डिब्बाबंद खाद्य-सामग्री (पैक्ड फ़ूड आइटम्स) के अवयव (घटक पदार्थ) दर्शाने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं) की छानबीन की जाए तो पता चलता है कि फलां आइटम तो मांसाहारी है. यह तो एक तरह का षड्यंत्र है, धोखा है, उपभोक्ता की धार्मिक भावनाओं का मखौल उड़ाने जैसा है. जो कम्पनियाँ और व्यक्ति ऐसा कर रहे हैं उनके विरुद्ध सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए और शाकाहार-अहिंसा में विश्वास रखने वाली भारत की आम जनता को ऐसी कंपनियों का पूर्ण बहिष्कार कर देना चाहिए. हम अनुरोध करते हैं कि आप जब भी कुछ खरीदे, उसके घटक (ingredients) अवश्य जांच लें|
साभार: स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ 
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