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रविवार, 13 जुलाई 2008

विस्फ़ोट

आरूषि हत्याकाण्ड में टीआरपी का जश्न
आलोक तोमर

सौजन्य: www.visfot.com
फोटो सौजन्यः आईबीएन लाइव
उस चैनल की सबसे ज्यादा टीआरपी होने के उपलक्ष में पार्टी हुई और विज्ञापन एजेंसियों को स्कॉच पिला कर बताया गया कि देखो हमने आरूषि मर्डर को सबसे ज्यादा बेचा है।
राजेश और नूपुर तलवार जब इक्यावनवे दिन नोएडा के अपने घर में घुसे होंगे तो उनकी मानसिकता और मनोदशा का सिर्फ एक अंदाजा लगाया जा सकता है। एक छोटा सा घर और उसमें रहने वाली उनकी चंचल बेटी आरूषि इस दुनिया में नहीं थी लेकिन घर का कोना कोना आरूषि की यादों को समेटे हुए था। उसका कमरा, उसकी बच्चों वाली साईकिल, उसके जूते, उसकी स्कूल ड्रेस, उसका स्कूली बस्ता और दीवार पर एक दिए के पड़ोस में हमेशा के लिए रख दी गई उसकी तस्वीर थी। मगर उसकी आवाज नहीं थी और मां पिता से लड़ने झगड़ने और छोटी मोटी बचकानी मांगें करने वाली जिद की यादें भी सिर्फ अतीत बन कर तैर रही थीं।

पचास दिन जेल में बिता कर राजेश तलवार डासना जेल से बाहर आ गए। उनके पीछे उसी जेल में बहुत सारे कैदी वैसी ही दिनचर्या काटते रहे क्योंकि उनका भाग्य, उनकी नियति और उनका अस्तित्व राजेश तलवार की तरह खबरों में नहीं था। यहां न्याय अपना पथ लेगा लेकिन बहुत सारे सवाल अब खड़े हुए हैं। पहले नोएडा पुलिस और फिर सीबीआई लगातार नए नए आकंड़े और रहस्य खोलती रही और खासतौर पर अपनी टीआरपी बढ़ा रहे टीवी मीडिया ने हर सूत्र को पकड़ कर, उसका अभिनय करवा के एक लंबी चौड़ी जासूसी कहानी खड़ी कर दी। एक चैनल तो तलवार जैसे ही फ्लैट में जा घुसा और उसके दो पत्रकार फिल्मों में दिखाई जाने वाली जासूसों की ड्रेस पहन कर एक कमरे से दूसरे कमरे में तीन-तीन कैमरों के साथ भटकते रहे और जांच एजेंसी की तरह घटनाक्रम को दोहराने का अभिनय करते रहे।

एक दूसरे चैनल ने तो इस बात का बीड़ा उठाया कि वह आरूषि और हेमराज के मोबाइल फोन का पता लगा कर रहेगा। उसके एक बंधक संवाददाता (इस चैनल में जो काम करता है वह बंधक होता है और उस पर कश्मीरी गेट का दंड विधान चलता है) दो नए मोबाइल फोनों को टी वी पर लाइव ईंटों से तोड़ते रहे और बार बार घड़ी यह बताती रही कि दोनों मोबाइल तोड़ने में कितना वक्त लगा होगा। इनवेस्टीगेटिव पत्रकारिता के नाम पर यह नौटंकी राखी सावंत और सांई बाबा के आंसुओं से ज्यादा बिकी। उस चैनल की सबसे ज्यादा टीआरपी होने के उपलक्ष में पार्टी हुई और विज्ञापन एजेंसियों को स्कॉच पिला कर बताया गया कि देखों हमने आरूषि को सबसे ज्यादा बेचा है। एक और चैनल के महान पत्रकार नेपाल में हेमराज के गांव पहुंच गए और दूसरे ने घोषित कर दिया कि जिस आदमी ने हेमराज की तलवार परिवार में नौकरी लगवाई थी, वह एक सड़क दुर्घटना में मारा जा चुका है। चौथे चैनल ने खटाक से खंडन कर दिया। फिर एक चैनल और एक अखबार ने नया दावा किया कि जिस रात आरूषि और हेमराज का कत्ल हुआ उस रात तलवार दंपत्ति घर पर ही नहीं थे और उन्होंने दिल्ली के एक होटल में दस कमरे बुक करवा रखे थे। इशारा यह था कि बीबियों की अदला बदली का जो खेल तमाशा कुत्सित तौर पर आज कल बहुत सुना जाता है उसमें तलवार दंपत्ति शामिल था। संयोग से इन सारे टीवी चैनलों में कभी न कभी मैं भी काम कर चुका हूं, तो काफी हद तक शर्मिंदगी का एहसास भी मुझे हुआ।

जब तक सीबीआई ने प्रैस कांफ्रेंस करके डॉक्टर तलवार को बेकसूर साबित नहीं किया था तब तक हर टीवी चैनल और लोकप्रिय मीडिया का हर माध्यम उन्हें खलनायक साबित करने पर तुला हुआ था। कोई उन्हें अवैध रिश्तों का विरोध करने के कारण बेटी को मार डालने वाला जालिम करार देने में लगा हुआ था और किसी को इस बात की जल्दी पड़ी थी कि इस कहानी में से कितनी और कहानियां निकलती हैं।

एक परिवार के निजी दुख के पहाड़ को काट कर उसके पत्थर बेचने की यह प्रतियोगिता चलती ही रही। फिर जब राजेश तलवार जेल से बाहर आए तो कैमरों ने गिद्धों की तरह उन्हें घेर लिया और सब उनके मुंह में माईक घुसा कर यह जानना चाहते थे कि इतने दिन बाद जेल से बाहर आ कर उन्हें कैसा लग रहा है। किसी की बेटी मर गई, उसके इल्जाम में उसे खुद जेल जाना पड़ा और आप पूछ रहे हैं कि उसे कैसा लग रहा है। ये निरक्षर और संवेदनहीन मित्र लोग यही सवाल फिल्म स्टार नाईट में पूछते हैं और यही सवाल उन्हें भूकंप या सुनामी के शिकारों से पूछना याद रहता है।आप जानना चाहते होंगे कि वह चैनल कौन है जिसने स्काच की पार्टी की और आरूषि की हत्या को बेच-बेचकर अपनी टीआरपी बढ़ाई? वह चैनल है रजत शर्मा का इंडिया टीवी.

अभी अदालती न्याय होना बाकी है लेकिन बहुत सारे ज्ञानियों ने टीवी के वातानुकूलित स्टूडियो में बैठ कर तलवार परिवार को सलाह दे डाली है कि वे नोएडा पुलिस पर मानहानि का मुकदमा दायर करें। शायद उन्हें करना भी चाहिए। नोएडा पुलिस के बदतमीज और बेगैरत अफसरों ने तो आरूषि को कॉल गर्ल और डॉक्टर तलवार को दिल फेंक आशिक हत्यारा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और सारे के सारे टीवी चैनलों ने इस अभियान में पुलिस का साथ दिया था। ये वे ही चैनल थे जो तलवार के जेल से जमानत पर छूटने के बाद लगातार ओबी प्रसारण गाड़ियां ले कर चल रहे थे और उनके एक एक कदम को लाईव दिखाना चाहते थे। उन्हें न दुख से मतलब था और न संताप से- वे सिर्फ टीआरपी बढ़ाना चाहते थे और अगर तलवार परिवार कभी नोएड़ा पुलिस पर मानहानि का मुकदमा चलाता है तो उसे इन सारे टीवी चैनलों और मीडिया के महारथियों को भी कटघरे में खड़ा करना चाहिए।

चलते चलते एक बात और। सीबीआई ने भले ही कंपाउंडर कृष्णा, दुर्रानी परिवार के सेवक राजकुमार, और पड़ोस के नौकर विजय मंडल को असली हत्यारा घोषित कर दिया हो लेकिन जैसे डॉक्टर राजेश तलवार के खिलाफ सबूत नहीं थे, उनके खिलाफ भी वैसे ही कोई प्रमाण नहीं हैं। लेकिन वे गरीब हैं, लगातार बड़े वकीलों की फौज खड़ी नहीं कर सकते और उन्हें अग्रेजी बोलना नहीं आता। टीआरपी में उनकी कोई जगह नहीं है। आप देखते जाइए जल्दी ही हमारा मुख्य धारा का मीडिया इस पूरे मामले को भूल जाएगा और उस नन्हीं, नादान और सपने देखने वाली बच्ची आरूषि को भी क्योंकि अब वह टीआरपी वाली खबर नहीं रही। जिन टीवी पर्दो पर आरूषि छाई हुई है वहां फिर हंसी मजाक के शो शुरू हो जाएंगे और ज्योतिष से ले कर राजनीति तक के कार्यक्रम शुरू हो जाएंगे। शर्म एक ऐसा शब्द है जो मीडिया के लिए अस्तित्व निरपेक्ष है। आप और हम भले ही शर्माते रहें और अपने अस्तित्व पर सवाल करते रहें लेकिन इस अमानवीय मीडिया का अस्तित्व है और रहेगा क्योंकि देश भर में लगे हुए कोई पांच हजार टीआरपी मीटर तय करते हैं कि हमें और आपको क्या देखना चाहिए।
सम्पर्क- aloktomar@hotmail.com
१२, जुलाई,२००८

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

लोकार्पण
















हिन्दी साहित्य मन्थन के तत्वावधान में चार पुस्तकों का लोकार्पण
ग़ज़ल में तख़ल्लुस को सार्थक करना काफी महत्वपूर्ण
-डा. शेरजंग गर्ग
हिंदी के वरिष्ठ रचनाकार डा. शेरजंग गर्ग का कहना है कि अमूमन ग़ज़लकार कोई न कोई तख़ल्लुस रख लेते हैं, लेकिन उसको साकार नहीं कर पाते हैं। कम भी ऐसे ग़ज़लगो हुए हैं जिन्होंने अपने तख़ल्लुस को सार्थक किया है। गा़लिब और मीर जैसे महान शायर भी इसको सार्थक करने में उतने सफल नहीं हो सके। पूरे़ ग़ज़लकारों पर नजर दौड़ाई जाए तो बलवीर सिंह रंग एक ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने अपने रंग उपनाम को सार्थक किया है। उसी प्रकार श्री देवेन्द्र माँझी ने भी अपने माँझी उपनाम को तमाम उपमाओं में पिरोकर ग़ज़ल को एक नई दिशा देने का काम किया है। माँझी को ग़ज़ल की व्याकरण और काफिया-रदीफ की मुक्कमल जानकारी है, लिहाजा वह औरों से अलग दिखता है।
डा. गर्ग साहित्य अकादेमी सभागार में आयोजित पुस्तक लोकार्पण सामारोह अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। हिंदी साहित्य मन्थन और मंजुली प्रकाशन के बैनर तले आयोजित पुस्तक लोकार्पण समारोह मैं एक साथ चार पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। जिसमें इशारे हवाओं के, समन्दर के दायरे (गजल संग्रह), झुकी पीठ पर बोझ (दोहा संकलन)- तीनों के रचनाकार श्री देवेन्द्र माँझी और तीन कदम (गजल संग्रह) जिसका संपादन श्री धीरज चौहान ने किया है, का लोकार्पण किया गया। तीन कदम में तीन गजलकारों, श्री अशोक वर्मा, श्री देवेन्द्र माँझी और श्री आर.के. पंकज की गज़लें हैं।
इन पुस्तकों का विमोचन डा. शेरजंग गर्ग ने किया। इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री रमा शंकर श्रीवास्तव ने कहा कि तीन कदम का मिजाज, शायर की रवानगी प्रशंसनीय है। काल्पनिक उड़ान वाली रचनाएं पाठक को प्रभावित नहीं कर पाती हैं, इसको ध्यान में रखकर ही तीनों रचनाकारों ने कलम चलायी है। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक डा. राजेन्द्र गौतम ने कहा कि सहयोगी संकलन निकाले जाने चाहिए, इससे एक नयी प्रेरणा मिलती है। देवेंद्र माँझी की पुस्तकों पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि माँझी का जूझना साबित करता है कि उन्होंने जिंदगी को काफी शिद्दत के साथ जिया है। मांझी जीवन-संग्राम के एक जुझारू नेता हैं और उनके संघर्ष की आंच उनकी ग़ज़लों में देखने को मिलती है।
प्रसिद्ध रचनाकार डा. लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने माँझी को एक आम आदमी का रहनुमा बताया और कहा कि वह आम आदमी की पीड़ा-घुटन-एहसास को रूपायित करते हैं। जो बात वे करते हैं वे हर दौर में किसी न किसी रूप में प्रासंगिक होती है और यही बात किसी भी रचनाकार को नयी ऊंचाई और पाठक की डायरी को समृद्ध करती है। इसके अतिरिक्त डा. अशोक लव और डा. हरीश अरोड़ा ने भी तीनों रचनाकरों की रचनाओं के बारे में अपने विचार रखते हुए कि मिजाज़ में थोड़ा अलगाव होते हुए भी तीनों की मंजिल एक है और तीनों का कथ्य भी। इसी कारण तीन कदम का प्रकाशन संभव हो पाया। कार्यक्रम के दौरान मंच का संचालन श्री सुरेश यादव ने किया।
अपनी रचनाओं की बाबत स्वयं माँझी ने कहा कि हवा के रुख और उसकी चाल के अंदाज पल-पल नये-नये इशारे करते रहते हैं और जो लोग इन इशारों की जुबां को समझ जाते हैं, वे जीवन में सफलता प्राप्त कर लेते हैं तथा जो इन्हें समझने में नाकाम रहते हैं, वे असफलता के गहन अंधेरों में खो से जाते हैं। सचमुच हवा हवा है और इसके इशारे यक्ष-प्रश्नों की तरह चुनौती देते रहते हैं हमारी बुद्धिमत्ता को। मैंनें भी बस इन्हीं चुनौतियों को स्वीकार करने का प्रयास किया है अपनी ग़ज़लों में।

सुभाष चन्द्र, नयी दिल्ली

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