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मंगलवार, 31 अगस्त 2010

गुलामी स्मृति खेल


गुलामी स्मृति खेलों ने शेर को बनाया बाघ


गुलामी स्मृति खेलों के शुभंकर या मस्कट शेरा या शेर को देखिए, वह शेर है ही नहीं अपितु बाघ या व्याघ्र या चीता है। यदि यह शेर है तो आप बाघ या व्याघ्र या चीता किसे कहेंगे? शेरा हिन्दी के शब्द शेर से बनाया गया है पर इस नाम को अंग्रेजी में टाइगर कहा गया है।

हम बचपन से ही सुनते पढ़ते आ रहे हैं कि जंगल में बहुत से जानवर रहते हैं जिनमें एक शेर भी होता है। उसे जंगली जानवरों का राजा या जंगल का राजा कहा जाता है। शेर को अंग्रेजी में लायन (lion) कहा जाता है। इसी तरह एक अन्य जंगली जानवर होता है बाघ या व्याघ्र या चीता जिसे अंग्रेजी में टाइगर (tiger) कहा जाता है।

यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि जंगल के राजा शेर या शेरा को कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 का शुभंकर तैनात किया गया है। (कॉमनवेल्थ का अर्थ इस तरह समझा जा सकता है-किसी देश की सम्पूर्ण प्रजा, राष्ट्रमण्डल, अंग्रेजों के गुलाम रहे देशों के समूह और गेम्स यानी खेल, ऐसे आयोजन से अपनी गुलामी की स्मृति को ताज़ा रखा जाता है और इस बहाने मुट्ठी भर जुगाड़ू लोगों को जनता के पसीने की कमाई में से धनार्जन के पर्याप्त सुअवसर मिलते हैं। प्राय: अधिकांश काम तब किए जाते हैं जब समय कम रह जाता है ताकि जल्दी के चक्कर में काफ़ी ऊंची दरों पर काम कराया जाए।) हम लोग किसी पदक-प्रसिद्धि के लालच में नहीं फ़ंसते सो काम जल्दी पूरा करने की जल्दी भी नहीं होती, ऐसे में हमारे खिलाड़ियों को उपयुक्त स्टेडियम अभ्यास के लिए उपलब्ध कराने की जरूरत भी नहीं रह जाती। जब पदक हम ले लेंगे तो अन्य गुलाम देश क्या यहां झख मारने आयेंगे! जो हमें चाहिए वह हम समेटने में कुशल हैं ही!

चित्र: कॉमनवेल्थ गेम्स २०१० दिल्ली का शुभंकर शेरा

खैर, गुलाम स्मृति खेलों के शुभंकर या मस्कट (mascot) शेरा या शेर को देखिए, वह शेर है ही नहीं अपितु बाघ या व्याघ्र या चीता है। यदि यह शेर है तो आप बाघ या व्याघ्र या चीता किसे कहेंगे? शेरा हिन्दी के शब्द शेर से बनाया गया है पर इस नाम को अंग्रेजी में टाइगर कहा गया है। कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 के जिम्मेदार पदाधिकारियों-सलाहकारों और उनका काम करने वाली सम्बन्धित एजेंसी की हिन्दी बह्त अधिक कमजोर है, इन लोगों ने मिलकर बाघ को शेर बना डाला है। इनके अनुसार शेर का अर्थ है टाइगर और चित्र के रूप में भी टाइगर ही स्वीकार है शेर नहीं। यानी बच्चों को यही बताया जाए कि अब शेर, शेर नहीं बाघ है और बाघ, बाघ नहीं शेर है या फ़िर शेर यानी टाइगर!


कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 की आधिकारिक वेबसाइट http://www.cwgdelhi2010.org/ में दियागया है-
Shera, mascot of the XIX Commonwealth Games 2010 Delhi, is the most visible face of the XIX Commonwealth Games 2010 Delhi. His name comes from the Hindi word Sher – meaning tiger.
(शेरा, 19वें राष्ट्रमण्डल खेल 2010 दिल्ली का शुभंकर, 19वें राष्ट्रमण्डल खेल 2010 दिल्ली सबसे अधिक दिखाई देने वाला चेहरा है। उसका नाम हिंदी शब्द शेर से लिया गया है- जिसका अर्थ है बाघ।)
चित्र: शेरा का ब्लॉग


और शेरा के ब्लॉग http://www.cwgdelhi2010.org/?q=node/1637 में भी स्पष्ट लिखा गया है-Name: Shera.......In Indian mythology, the tiger is associated with Goddess Durga, the embodiment of Shakti (or female power) and the vanquisher of evil. She rides her powerful vehicle – the tiger – into combat, especially in her epic and victorious battle against Mahishasur, a dreaded demon.

My name comes from the Hindi word Sher – meaning tiger. I represent the modern Indian.
चित्र: विकीपीडिया में शेरा


(नाम: शेरा....... भारतीय पौराणिक कथाओं में, बाघ देवी दुर्गा, शक्ति का अवतार (या महिला शक्ति) और बुराई की विजेता से जुड़ा है। महाकाव्य में विशेष रूप से एक भयानक राक्षस महिषासुर से निपटने में वह अपने शक्तिशाली वाहन बाघ की सवारी करती है।

मेरा नाम हिंदी शब्द शेर से आता है- जिसका अर्थ है बाघ। मैं आधुनिक भारतीय का प्रतिनिधित्व करता हूं।)

काश! शेर पढ़ा-लिखा होता तो अपने बारे में इन लोगों के अज्ञान को लेकर उन्हें अब तक सबक सिखा देता। यह वैसा ही है जैसे गांधी जी के फ़ोटो के नीचे सरदार पटेल का नाम लिख दिया जाए और अपनी कारस्तानी को सही सिद्ध करने के लिए कुतर्क भी दिए जाएं और लोगों के मन-मस्तिष्क में उसे बिठाने के लिए तरह-तरह के आधुनिक उपाय अपनाए जाएं। इस ओर देश के तमाम पढ़े-लिखे और विद्वान लोगों का ध्यान क्यों नहीं जाता, चारों ओर मौन स्वीकृति पसरी हुई है। जो जिम्मेदार लोग हैं वे अपने-अपने खेलों में लगे हुए हैं जिससे दुनिया भर में थू-थू हो चुकी है, हो रही है।


चित्र: शेर/सिंह, बाघ/व्याघ्र, शेरा और बाघ

बाघ को शेर बना डालने की इस गलती को अमर बनाने के लिए शेरा छाप सोने के सिक्के भी बनाकर लोगों को बेचे जाएंगे। ये सिक्के शुद्ध सोने के लगभग १० ग्राम वजन के होंगे। प्रमाण के लिए इनके पीछे एमएमटीसी की मुहर भी होगी। एशियाई खेलो की भांति कॉमन्वेल्थ गेम्स २०१० को यादगार बनाने के लिए ये सोने के सिक्के बाज़ार में उतारे जाएंगे। हमारे यहां दीवाली, नवरात्र आदि शुभ अवसरों पर सोने के सिक्के खरीदने की परम्परा को ध्यान में रखते हुए करीब २०० करोड़ रुपये की बिक्री होने का अनुमान लगाया गया है। इस तरह बाघ को शेर बना डालने की अपनी गलती से भी जोरदार कमाई की योजना बना ली गयी है।














सन्दर्भ के लिए दिए चित्रों के लिए बहुत-बहुत आभार

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गुलामी स्मृति खेलों ने शेर को बनाया बाघ

बुधवार, 25 अगस्त 2010

माता-पिता

मातृ देवो भव, पितृ देवो भव

हम यह मान बैठे हैं कि समूची सृष्टि हमारे उपभोग के लिए है। उस पर हमारा ही अधिकार है, हम जैसे चाहें उसका उपभोग करें-उचित या अनुचित। हमें अपने दायित्वों का प्रायः ध्यान नहीं रहता या कहें, हम इस बात का ध्यान रखना ही नहीं चाहते। यह शुतुर्मुर्गी प्रवृत्ति हमें राक्षस बना रही है।

चित्त में मलिनता, संकीर्णता, दुर्भावना, राग-द्वेष आदि वृत्तियाँ भरी हुई हैं और तरह-तरह की वासनाएं लहर मार रही हैं। ऐसे में भजन-कीर्तन, सत्संग, तीर्थ यात्रा, प्रभु स्मरण आदि से कुछ भी भला होने वाला नहीं है। कलुषित मन मनुष्य को परमात्मा के आसपास भी नहीं फटकने देता। जो प्रभु को प्रिय है उसे अपनाए बिना प्रभु के निकट कोई पहुंच भी कैसे सकता है! इससे अभिन्नता के बिना उसकी प्राप्ति असम्भव है।

ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने जब तक मिला गाय का दूध दुहा और उपयोग किया। उसके बछड़े से खेले। उसे गाय माता के रूप में पूजा। जब गाय को दुह लिया तो उसे गलियों-सड़कों पर आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया। या फिर जब उसने दूध देना बन्द कर दिया तो गाय व्यर्थ हो गयी और उसे कसाई के हवाले कर दिया। अब ‘माता’ किस काम की! बूढ़ी, कमजोर और अनुपयोगी मां भी भला काम आ सकती है! बिलकुल यही स्थिति भारतीय घरों में माता-पिता के मामले में हो रही है। यह उपयोगितावादी प्रवृत्ति आज के समय में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक तेजी से पनप रही है।

यह सोच कि बूढ़े हो चुके माता-पिता अब किस काम के हैं, काफी खतरनाक और हिंसक है। एक परिवार में दादा-दादी को मिट्टी के बरतन और पत्तलों में खाना खाते देख पोते ने सवाल किया तो दादा ने कहा कि जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तो किसी काम का नहीं रहता सो उसके लिए ऐसे बरतन ही ठीक हैं। शाम को जब पापा घर आए तो बेटे ने उनसे मिट्टी के बरतन और पत्तलें लाने को कहा। पापा के कारण पूछने पर बेटे ने दादा की कही बात दुहरा दी। यह पता नहीं कि बेटे की बात सुनकर पापा की आंखें खुलीं या नहीं पर वास्तविकता यही है कि हम बबूल बोकर आम पाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।

दरअसल हम यह मान बैठे हैं कि समूची सृष्टि हमारे उपभोग के लिए है। उस पर हमारा ही अधिकार है, हम जैसे चाहें उसका उपभोग करें-उचित या अनुचित। हमें अपने दायित्वों का प्रायः ध्यान नहीं रहता या कहें, हम इस बात का ध्यान रखना ही नहीं चाहते। यह शुतुर्मुर्गी प्रवृत्ति हमें राक्षस बना रही है। जिन्होंने अपनी सन्तान के लिए अपना तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दिया, उनके भविष्य और आने वाली पीढ़ी के लिए स्वयं को अर्पित कर दिया। सदा अपनी सन्तान के सुख की खातिर अपना सुख नहीं देखा। इसके बदले उन्हें मिला क्या? वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम, विधवाश्रम या महिलाश्रम आदि ही न!

बुजुर्गों के लिए नित नये ‘आश्रम’ बन रहे हैं। उनके लिए घर में जगह नहीं है। अंग्रजी शिक्षित परिवारों, सुसज्जित आधुनिक घरों और स्वार्थी लोगों में चुके हुए पुराने जमाने के मां-बाप फिट नहीं बैठते। उनकी धन-सम्पत्ति और जमीन-जायदाद ही काम की होती है। बुजुर्गों के प्रति ऐसा रवैया मानसिक रूप से बीमार समाज का परिचायक है। यह स्थिति सचमुच दुःखद, दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है।

अनुभवों की खान बुजुर्गों की उपेक्षा-अनदेखी निःसन्देह अशुभ है। मानव जीवन की उन्नति और सद्गणों के विकास के लिए वृद्धजनों की उपस्थिति आवश्यक और परम सौभाग्य की बात है। हम अपनी विश्व प्रसिद्ध संस्कृति के विरुद्ध आचरण करने लगे हैं। ऐसे आचरण के कुछ दुष्परिणाम तुरन्त दिखने लगते हैं और अनेक ऐसे दुष्परिणाम होते हैं जिनका असर दूरगामी तथा व्यापक होता है।

एक परिवार में हर उम्र के लोगों के लिए कोई न कोई उपयुक्त काम होता है। यह आवश्यक नहीं कि हर कार्य का मूल्यांकन आर्थिक लाभ के रूप में ही हो। हमारी संस्कृति के विकास के साथ-साथ ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’ की भावना निरन्तर बलवती हुई है। संयुक्त परिवारों के टूटने के मूल में स्वार्थ, मेरा-तेरा की भावना, संकुचित विचार आदि के अलावा उपयोगितावाद की प्रमुख भूमिका रही है। आज भी ऐसे अनगिनत सुखी परिवार ऐसे हैं जिनपर माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी और परिवार के अन्य बुजुर्गों की छत्रछाया बनी हुई है। उनको पर्याप्त सम्मान मिलता है। उनकी सलाह को माना जाता है। इसका सुखद प्रभाव परिवार के बच्चों पर भी पड़ता है। ऐसे परिवारों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इसके लि स्वकेन्द्रित होने की भावना को छोड़ना होगा।

अपने घरों में बुजुर्गों की स्थिति देखने में कुछ समय लगाएं और स्वयं उचित अनुचित का आकलन करें। आवश्यकतानुसार उपयुक्त आचरण कर अपने व्यवहार में बदलाव लाएं। प्रेम, धैर्य, निष्ठा आदि के साथ अपने बड़ों की सेवा करें। परिवार के अर्थ को मै-मेरी पत्नी-मेरे बच्चे से आगे बढ़कर व्यापक बनाएं। जैसे उन्होंने अपनी सामर्थ्य या उससे आगे बढ़कर हमारा ध्यान रखा, हमें सामर्थवान बनाया वैसे ही हमें अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। हम उनका ऋण नहीं चुका सकते पर उन्हें सुख पहुंचाने का यथासम्भव प्रयास तो कर ही सकते हैं।

आज वृद्धाश्रम आदि के विकल्प अपनाए जाने की भी आवश्यकता है। जिस प्रकार किसी छोटे बच्चे को गोद लेकर पालन-पोषण कर पढ़ा-लिखाकर बड़ा करते हैं, वैसे ही जिनके माता-पिता नहीं हैं वे चाहें तो ‘माता’ या ‘पिता’ या दोनों को गोद लेकर उनकी सेवा कर संतुष्टि पा सकते हैं। यों यह काम कर पाना आसान नहीं है पर यदि ठान लिया जाए तो अधिक मुश्किल भी नहीं है। इतना सम्भव न हो तो अपने कीमती समय का कुछ भाग अकेले रह रहे बुजुर्गों के साथ बिताना और उनकी सहायता करना भी अनूठा सुख देगा। उनके सुख के लिए यथाशक्ति और यथासम्भव प्रबन्ध भी किया जा सकता है।

ऐसे अनेक वृद्धजन हैं जिनकी नालायक सन्तानों ने उनके धन-संपत्ति पर अनुचित तरीके से कब्जा कर उन्हें दूध से मक्खी की भांति निकालकर फैंक दिया है। उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट पहुंचाए हैं। ऐसे ही कुछ बुजुर्ग विवश होकर न्याय पाने के लिए अपनी ही औलाद के विरुद्ध अदालत की शरण में से पहुंचे हैं। यह स्थिति सचमुच शर्मनाक है। अनेक परिवार ऐसे हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों ही नौकरी या व्यवसाय करते हैं। विशेष रूप से ऐसे परिवारों में बुजुर्गों की उपस्थिति की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।

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