हम यह मान बैठे हैं कि समूची सृष्टि हमारे उपभोग के लिए है। उस पर हमारा ही अधिकार है, हम जैसे चाहें उसका उपभोग करें-उचित या अनुचित। हमें अपने दायित्वों का प्रायः ध्यान नहीं रहता या कहें, हम इस बात का ध्यान रखना ही नहीं चाहते। यह शुतुर्मुर्गी प्रवृत्ति हमें राक्षस बना रही है।
चित्त में मलिनता, संकीर्णता, दुर्भावना, राग-द्वेष आदि वृत्तियाँ भरी हुई हैं और तरह-तरह की वासनाएं लहर मार रही हैं। ऐसे में भजन-कीर्तन, सत्संग, तीर्थ यात्रा, प्रभु स्मरण आदि से कुछ भी भला होने वाला नहीं है। कलुषित मन मनुष्य को परमात्मा के आसपास भी नहीं फटकने देता। जो प्रभु को प्रिय है उसे अपनाए बिना प्रभु के निकट कोई पहुंच भी कैसे सकता है! इससे अभिन्नता के बिना उसकी प्राप्ति असम्भव है।
ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने जब तक मिला गाय का दूध दुहा और उपयोग किया। उसके बछड़े से खेले। उसे गाय माता के रूप में पूजा। जब गाय को दुह लिया तो उसे गलियों-सड़कों पर आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया। या फिर जब उसने दूध देना बन्द कर दिया तो गाय व्यर्थ हो गयी और उसे कसाई के हवाले कर दिया। अब ‘माता’ किस काम की! बूढ़ी, कमजोर और अनुपयोगी मां भी भला काम आ सकती है! बिलकुल यही स्थिति भारतीय घरों में माता-पिता के मामले में हो रही है। यह उपयोगितावादी प्रवृत्ति आज के समय में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक तेजी से पनप रही है।
यह सोच कि बूढ़े हो चुके माता-पिता अब किस काम के हैं, काफी खतरनाक और हिंसक है। एक परिवार में दादा-दादी को मिट्टी के बरतन और पत्तलों में खाना खाते देख पोते ने सवाल किया तो दादा ने कहा कि जब आदमी बूढ़ा हो जाता है तो किसी काम का नहीं रहता सो उसके लिए ऐसे बरतन ही ठीक हैं। शाम को जब पापा घर आए तो बेटे ने उनसे मिट्टी के बरतन और पत्तलें लाने को कहा। पापा के कारण पूछने पर बेटे ने दादा की कही बात दुहरा दी। यह पता नहीं कि बेटे की बात सुनकर पापा की आंखें खुलीं या नहीं पर वास्तविकता यही है कि हम बबूल बोकर आम पाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।
दरअसल हम यह मान बैठे हैं कि समूची सृष्टि हमारे उपभोग के लिए है। उस पर हमारा ही अधिकार है, हम जैसे चाहें उसका उपभोग करें-उचित या अनुचित। हमें अपने दायित्वों का प्रायः ध्यान नहीं रहता या कहें, हम इस बात का ध्यान रखना ही नहीं चाहते। यह शुतुर्मुर्गी प्रवृत्ति हमें राक्षस बना रही है। जिन्होंने अपनी सन्तान के लिए अपना तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दिया, उनके भविष्य और आने वाली पीढ़ी के लिए स्वयं को अर्पित कर दिया। सदा अपनी सन्तान के सुख की खातिर अपना सुख नहीं देखा। इसके बदले उन्हें मिला क्या? वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम, विधवाश्रम या महिलाश्रम आदि ही न!
बुजुर्गों के लिए नित नये ‘आश्रम’ बन रहे हैं। उनके लिए घर में जगह नहीं है। अंग्रजी शिक्षित परिवारों, सुसज्जित आधुनिक घरों और स्वार्थी लोगों में चुके हुए पुराने जमाने के मां-बाप फिट नहीं बैठते। उनकी धन-सम्पत्ति और जमीन-जायदाद ही काम की होती है। बुजुर्गों के प्रति ऐसा रवैया मानसिक रूप से बीमार समाज का परिचायक है। यह स्थिति सचमुच दुःखद, दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है।
अनुभवों की खान बुजुर्गों की उपेक्षा-अनदेखी निःसन्देह अशुभ है। मानव जीवन की उन्नति और सद्गणों के विकास के लिए वृद्धजनों की उपस्थिति आवश्यक और परम सौभाग्य की बात है। हम अपनी विश्व प्रसिद्ध संस्कृति के विरुद्ध आचरण करने लगे हैं। ऐसे आचरण के कुछ दुष्परिणाम तुरन्त दिखने लगते हैं और अनेक ऐसे दुष्परिणाम होते हैं जिनका असर दूरगामी तथा व्यापक होता है।
एक परिवार में हर उम्र के लोगों के लिए कोई न कोई उपयुक्त काम होता है। यह आवश्यक नहीं कि हर कार्य का मूल्यांकन आर्थिक लाभ के रूप में ही हो। हमारी संस्कृति के विकास के साथ-साथ ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’ की भावना निरन्तर बलवती हुई है। संयुक्त परिवारों के टूटने के मूल में स्वार्थ, मेरा-तेरा की भावना, संकुचित विचार आदि के अलावा उपयोगितावाद की प्रमुख भूमिका रही है। आज भी ऐसे अनगिनत सुखी परिवार ऐसे हैं जिनपर माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी और परिवार के अन्य बुजुर्गों की छत्रछाया बनी हुई है। उनको पर्याप्त सम्मान मिलता है। उनकी सलाह को माना जाता है। इसका सुखद प्रभाव परिवार के बच्चों पर भी पड़ता है। ऐसे परिवारों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इसके लि स्वकेन्द्रित होने की भावना को छोड़ना होगा।
अपने घरों में बुजुर्गों की स्थिति देखने में कुछ समय लगाएं और स्वयं उचित अनुचित का आकलन करें। आवश्यकतानुसार उपयुक्त आचरण कर अपने व्यवहार में बदलाव लाएं। प्रेम, धैर्य, निष्ठा आदि के साथ अपने बड़ों की सेवा करें। परिवार के अर्थ को मै-मेरी पत्नी-मेरे बच्चे से आगे बढ़कर व्यापक बनाएं। जैसे उन्होंने अपनी सामर्थ्य या उससे आगे बढ़कर हमारा ध्यान रखा, हमें सामर्थवान बनाया वैसे ही हमें अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। हम उनका ऋण नहीं चुका सकते पर उन्हें सुख पहुंचाने का यथासम्भव प्रयास तो कर ही सकते हैं।
आज वृद्धाश्रम आदि के विकल्प अपनाए जाने की भी आवश्यकता है। जिस प्रकार किसी छोटे बच्चे को गोद लेकर पालन-पोषण कर पढ़ा-लिखाकर बड़ा करते हैं, वैसे ही जिनके माता-पिता नहीं हैं वे चाहें तो ‘माता’ या ‘पिता’ या दोनों को गोद लेकर उनकी सेवा कर संतुष्टि पा सकते हैं। यों यह काम कर पाना आसान नहीं है पर यदि ठान लिया जाए तो अधिक मुश्किल भी नहीं है। इतना सम्भव न हो तो अपने कीमती समय का कुछ भाग अकेले रह रहे बुजुर्गों के साथ बिताना और उनकी सहायता करना भी अनूठा सुख देगा। उनके सुख के लिए यथाशक्ति और यथासम्भव प्रबन्ध भी किया जा सकता है।
ऐसे अनेक वृद्धजन हैं जिनकी नालायक सन्तानों ने उनके धन-संपत्ति पर अनुचित तरीके से कब्जा कर उन्हें दूध से मक्खी की भांति निकालकर फैंक दिया है। उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट पहुंचाए हैं। ऐसे ही कुछ बुजुर्ग विवश होकर न्याय पाने के लिए अपनी ही औलाद के विरुद्ध अदालत की शरण में से पहुंचे हैं। यह स्थिति सचमुच शर्मनाक है। अनेक परिवार ऐसे हैं जिनमें पति-पत्नी दोनों ही नौकरी या व्यवसाय करते हैं। विशेष रूप से ऐसे परिवारों में बुजुर्गों की उपस्थिति की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।
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