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बुधवार, 23 अप्रैल 2008

ग़ज़लें















माँझी की ग़ज़लें
चुपचाप अंजुमन से कहीं जा रहे हैं लोग
लगता है जैसे आनके पछता रहे हैं लोग

वो कौन-सा गुनाह किया है कि सब के सब
इक दूसरे को देखकर शरमा रहे हैं लोग



ढलने लगी है रात झरोखे को खोल दे
अय जाने-इंतज़ार सज़ा पा रहे हैं लोग



क्या बात है शबाब पे होते हुए बहार
बाग़ों के दरम्यान भी मुरझा रहे हैं



ये किसके फूल फेंक दिए हैं नदी के बीच
`माँझी' इधर-उधर से चले आ रहे हैं लोग


देवेन्द्र माँझी
सिण्डीकेट एन्क्लेव, नयी दिल्ली
hindisahitymanthan@gmail.com






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ग़ज़ल
वो ख़त तेरे ही नाम हो ये ज़रूरी तो नहीं
उसका ही ये पैग़ाम हो ये ज़रूरी तो नहीं


इस मुफ़लिसी के दौर में माँगे भी न बने
होठों पे तेरे जाम हो ये ज़रूरी तो नहीं


तन्हाइयों से गुफ़्तगू करना भी सीख ले
हर कहकहों की शाम हो ये ज़रूरी तो नहीं

बिखरा नहीं हूँ टूटकर मैं आपकी तरह
हर इक कदम नाक़ाम हो ये ज़रूरी तो नहीं

अज़ी दाम अपना बोलिए ‘पंकज’ की छोड़िए
सबका ही वाजिब दाम हो ये ज़रूरी तो नहीं
पंकज
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1. ग़रीबी 2. बातचीत 3. उचित
* आर के पंकज की किताब रूह लेगी फ़िर जनम से
प्रकाशक: भारतीय साहित्य शोध संस्थान
नयी दिल्ली-110045

सम्पर्क: hindisahitymanthan@gmail.com
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