अभी हाल में ही मैं अपने गृहराज्य कर्नाटक गया था. मैंने अनुभव किया कि इस इलाके में इधर के वर्षों में ईसाइयों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है. जब थोड़ी और जानकारी इकट्ठा की तो पता चला कि धर्मांतरण में यह तेजी वर्ल्ड विजन के सक्रिय होने के बाद आयी है. यह वर्ल्ड विजन वही दानदाता संस्था है जो भारत के एक पवित्रतम स्थान माजुली में धर्मांतरण के कामों को मदद कर रहा है. माजुली द्वीप समूह वैष्णव संप्रदाय के महान समाज सुधारक शंकर देव की कर्मस्थली है. वर्ल्ड विजन इन द्वीप समूहों पर ईसा का पवित्र संदेश पहुंचाना चाहता है. इसके लिए वह भारी रकम भी खर्च कर रहा है.
अगर आप गृह मंत्रालय, भारत सरकार की रपटों को देखें तो पता चलेगा कि २००३-२००४ के ५०१०५ करोड़ की तुलना में २००६-२००७ में ७,८७७ करोड़ रुपये एफसीआरए के तहत रजिस्टर्ड संस्थाओं को दान स्वरूप बाहर के देशों से प्राप्त हुए है. इसमें सबसे ज्यादा पैसा दान करनेवाली संस्थाएं हैं- गास्पेल फेलोशिप ट्रस्ट, अमेरिका(२२९ करोड़), गास्पेल फार एशिया (१३७ करोड़), फाउन्डेशन विन्शेन्ट ई फेरर, स्पेन (१०४.२३ करोड़), क्रिश्चियन एड, यूके (८०.१६ करोड़) हैं. जहां तक पैसा पानेवाली संस्थाओं का सवाल है to वर्ल्ड विजन को २५६ करोड़, चैरिटास इंडिया को १९३ करोड़, रूरल डेवलपमेन्ट ट्रस्ट आफ आंध्र प्रदेश को १२७ करोड़, चर्चेस आक्सिलरी फार सोशल एक्शन (CASA) को ९५.८८ करोड़ और गास्पेल फार एशिया को ५८.२९ करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं. अब आपको यह समझने में दिक्कत नहीं होगी कि वर्ल्ड विजन के काम में इतनी तेजी क्यों आयी है.
मैं किसी दक्षिणपंथी या हिन्दूवादी मुख्यमंत्री के बयान या आरोप से बात शुरू नहीं करूंगा. मैं त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिकराव सरकार के बयान से बात शुरू करूंगा जो कि सीपीआईएम के समर्पित काडर हैं. उन्होंने कहा कि विदेशी
धन प्राप्त करनेवाले बैप्टिस्ट चर्च आपत्तिजनक कार्यों को भी सहयोग करते हैं जिसमें आदिवासियों के धर्मांतरण से लेकर अलगाववादी समूहों को मदद करने तक की बातें शामिल हैं. इंटरनेट पर ही ऐसे ढेरों रपटें मौजूद हैं जो इस बात का सबूत हैं कि कैसे वर्ल्ड विजन ने मंगोलिया, भूटान, लंका, म्यांमार, थाईलैण्ड और यहां तक कि तिब्बत में भी धर्मांतरण की कोशिशें की हैं. अपनी इस विश्वदृष्टि को हासिल करने के लिए उन्होंने सामाजिक कामों को अपना सबसे शसक्त हथियार बनाया है. द आस्ट्रेलियन आस्ट्रेलिया का बड़ा अखबार है. २४ दिसंबर २००५ को उसने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि इंडोनेशिया में सुनामी के बाद ईसाई और मुस्लिम समुदायों में झड़पें हुई हैं. सुनामी के कारण अकेले इंडोनेशिया में १,७०,००० लोग मारे मारे गये थे और लाखों लोग बेघर हुए थे. झड़प के कारणों को बताते हुए अखबार ने लिखा था कि यहां के मुस्लिमों का आरोप था कि ईसाई संस्थाएं धर्मांतरण के काम में लिप्त हैं. यहां भी जिस एक संस्था पर अंगुली उठाई गयी उसका नाम भी वर्ल्ड विजन ही था. यह कैथोलिक ईसाईयों का विश्व अभियान है, जो प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों से अलग अपने ढंग से काम करता है.
श्रीलंका के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल ए एस अमरशेखर अब बौद्ध प्रचारक हैं. वे कहते हैं श्रीलंका सरकार केवल एलटीटीई से निपटने में ही सारी शक्ति झोंकने में विश्वास करती है जबकि हम सिंहली बौद्धों के सामने उससे बड़ा खतरा ईसाई धर्मांतरण का खड़ा हो गया है. फिर वे दक्षिण कोरिया का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि दक्षिण कोरिया में पांच दशक पहले ८० प्रतिशत बौद्ध थे जो आज घटकर १८ प्रतिशत रह गये हैं. क्या यही सब यहां श्रीलंका में भी दोहराया जाएगा? अमरशेखर कहते हैं कि अमेरिका से धन प्राप्त करनेवाली संस्था वर्ल्ड विजन यहां तेजी से सिंहली बौद्धों को ईसाइयत में धर्मांतरित कर रही है.
जैसा कि मैं पहले से यह बात कहता आया हूं कि धर्मांतरण के खिलाफ होनेवाली हिंसा का निश्चित रूप से विरोध होना चाहिए और भविष्य में ऐसी घटनाएं न हो इसकी व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन साथ में सरकार और प्रशासन को ऐसे कदम भी उठाने होंगे कि धर्मांतरण के अहिंसक प्रयासों पर भी रोक लगे. ऐसा करने से दुनिया में धार्मिक सद्भाव के लिए लागू मानकों और आचार संहिताओं का भी कहीं से उल्लंघन नहीं होता है. मैं मई २००६ में जेनेवा में वर्ल्ड काउंसिल आफ चर्चेस के एक सम्मेलन में भाग लेने गया था. वहां धार्मिक आजादी और मान्यता को लेकर जो आम सहमति बनी थी उसमें भी यह बात मानी गयी थी कि दूसरे को धर्म को समझने के लिए किसी को अपने पास बुलाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन उसके साथ जोर-जबर्दस्ती या लालच के साथ धर्मांतरण करने के लिए प्रेरित करना उचित नहीं है. दूसरे के धर्म का हमें पूरी तरह से सम्मान करना चाहिए. अपने धर्म में आ गये दोषों को सुधारने के लिए सभी धर्मों को समय-समय पर अपना पुनर्निरीक्षण भी करना चाहिए. किसी भी धर्म को समाज के कमजोर और असहाय तबकों का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए.
अगर हम भारत में ईसाई संस्थानों की गतिविधियों को देखें तो पायेंगे कि ज्यादातर ईसाई संस्थाएं स्कूल, कालेज, अस्पताल और गरीबी उन्मूलन के दूसरे कामों में लगी हुई हैं. इसमें कुछ संस्थाएं ऐसी भी हैं जो विशुद्ध सेवा भाव से ही यह काम कर रही हैं. लेकिन यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ईसाई धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसमें परिवर्तित लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है. विदेश से सेवा के नाम पर मिलनेवाले पैसे का ये ईसाई संस्थाएं धर्मांतरण के लिए इस्तेमाल करती हैं. क्या अब समय नहीं आ गया है कि भारत सरकार धर्मांतरण के बारे में की जारी तथ्य और भ्रम को साफ करने के लिए एक एक राष्ट्रीय आयोग का गठन करना चाहिए. यह कमीशन ही सब तथ्यों की जांच-पड़ताल करके धर्मांतरण से जुड़ी हकीकतों को देश के सामने रखे. देश को यह पता चलना ही चाहिए कि १९४७ के बाद देश में किस धर्म ने किस तरह और कितना धर्मांतरण किया है. जिन जिलों में खतरनाक स्तर तक धार्मिक असंतुलन पैदा हो गया है उसके बारे में भी यह कमीशन पता लगाए और देश को बताये कि इन कृत्यों के पीछे कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं.
सम्पर्क- सुधीन्द्र कुलकर्णी: sudheenkulkarni@gmail.com
Photo: Alan Spearman
प्रस्तुति: टी.सी. चन्दर
..............................................................................
फिरदौस खान
सौजन्य: www.visfot.com
भारत में गौ हत्या को रोकने के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है...अलकबीर नाम के स्लाटर हाउस में हर रोज़ हजारों गाय काटी जाती हैं...कुछ साल पहले हिन्दू संगठनों ने इसके ख़िलाफ़ मुहिम भी छेड़ी थी, लेकिन जब यह पता चला कि इसका मालिक कोई मुसलमान नहीं, बल्कि गैर मुस्लिम यानी जैनी है तो आन्दोलन को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया...यह जगज़ाहिर है कि गौहत्या से सबसे बड़ा फ़ायदा गौ तस्करों और गाय के चमड़े का कारोबार करने वाले बड़े कारोबारियों को ही होता है।
इन वर्गों के दबाव के कारण ही सरकार गौहत्या पर पाबंदी लगाने से गुरेज़ करती है। वरना दूसरी क्या वजह हो सकती है कि जिस देश में गाय को माता के रूप में पूजा जाता हो, उस देश की सरकार गौहत्या को रोकने में नाकाम है।
क़ाबिले-गौर है कि भारत में मुस्लिम शासन के दौरान कहीं भी गौवध को लेकर हिन्दू और मुसलमानों में टकराव का वाकिया देखने को नहीं मिलता। अपने शासनकाल के आखिरी साल में जब मुगल बादशाह बाबर बीमार हो गया तो उसके प्रधान ख़लीफा निज़ामुद्दीन के हुक्म पर सिपाहसालार मीर बकी ने गैर मुस्लिमों को परेशान
करना शुरू कर दिया। जब इसकी ख़बर बाबर तक पहुंची तो उन्होंने क़ाबुल में रह रहे अपने बेटे हुमायूं को एक पत्र लिखा। बाबरनामे में दर्ज इस पत्र के मुताबिक़ बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को नसीहत करते हुए लिखा- ''हमारी
बीमारी के दौरान मंत्रियों ने शासन व्यवस्था बिगाड़ दी है, जिसे बयान नहीं किया जा सकता। हमारे चेहरे पर कालिख पोत दी गई है, जिसे पत्र में नहीं लिखा जा सकता। तुम यहां आओगे और अल्लाह को मंजूर होगा तब रूबरू होकर कुछ बता पाऊंगा। अगर हमारी मुलाकात अल्लाह को मंजूर न हुई तो कुछ तजुर्बे लिख
देता हूं जो हमें शासन व्यवस्था की बदहाली से हासिल हुए हैं, जो तुम्हारे काम आएंगे-
1. तुम्हारी जिन्दगी में धार्मिक भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। तुम्हें निष्पक्ष होकर इंसाफ करना चाहिए। जनता के सभी वर्गों की धार्मिक भावना का हमेशा ख्याल रखना
2. तुम्हें गौहत्या से दूर रहना चाहिए। ऐसा करने से तुम हिन्दोस्तान की जनता में प्रिय रहोगे। इस देश के लोग तुम्हारे आभारी रहेंगे और तुम्हारे साथ उनका रिश्ता भी मजबूत हो
3. तुम किसी समुदाय के धार्मिक स्थल को न गिराना। हमेशा इंसाफ करना, जिससे बादशाह और प्रजा का संबंध बेहतर बना रहे और देश में भी चैन-अमन कायम रहे।'' हदीसों में भी गाय के दूध को फ़ायदेमंद और गोश्त को नुकसानदेह बताया गया है।
1. उम्मुल मोमिनीन (हज़रत मुहम्मद साहब की पत्नी) फ़रमाती हैं कि नबी-ए-करीम हज़रत
मुहम्मद सलल्लाह फ़रमाते हैं कि गाय का दूध व घी फ़ायदेमंद है और गोश्त
बीमारी पैदा करता है।
2. नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद सलल्लाह फरमाते हैं कि गाय का दूध फ़ायदेमंद है। घी इलाज है और गोश्त से बीमारी बढ़ती है। (इमाम तिबरानी व हयातुल हैवान)
3. नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद सलल्लाह फ़रमाते हैं कि तुम गाय के दूध और घी का सेवन किया
करो और गोश्त से बचो, क्योंकि इसका दूध और घी फ़ायदेमंद है और इसके गोश्त से बीमारी पैदा होती है। (इबने मसूद रज़ि व हयातुल हैवान)
4. नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद सलल्लाह फ़रमाते हैं कि अल्लाह ने दुनिया में जो भी बीमारियां उतारी हैं, उनमें से हर एक का इलाज भी दिया है। जो इससे अनजान है वह अनजान ही रहेगा। जो जानता है वह जानता ही रहेगा। गाय के घी से ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक कोई चीज़ नहीं है। (अब्दुल्लाबि मसूद हयातुल हैवान)
कुरान में सात आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई है। गाय और बैलों से इंसानों को मिलने वाले फ़ायदों के लिए उनका आभार जताया गया है।
भारत में गौ हत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेजों ने अहम भूमिका निभाई। जब सन् 1700 ई. में अंग्रेज़ भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस वक्त तक यहां गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था। हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते, लेकिन अंग्रेज़ इन दोनों ही पशुओं के मांस का सेवन बड़े चाव से करते हैं। अंग्रेज़ों को इन दोनों ही पशुओं के मांस की ज़रूरत थी। इसके अलावा वे भारत पर भी क़ब्जा करना चाहते थे। उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है किगाय की कुर्बानी हराम है। इसलिए उन्हें गाय की कुर्बानी करनी चाहिए। उन्होंने मुसलमानों को लालच भी दिया और कुछ लोग उनके झांसे में आ गए। इसी तरह उन्होंने दलित हिन्दुओं को सुअर के मांस की बिक्री कर मोटी रक़म कमाने
का झांसा दिया।
गौरतलब है कि यूरोप दो हज़ार बरसों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है। भारत में भी अपने आगमन के साथ ही अंग्रेज़ों ने यहां गौ हत्या शुरू करा दी। 18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गौ हत्या होने लगी। यूरोप की ही तर्ज पर अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देशभर में कसाईखाने बनवाए। जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अधिकारियों की तादाद बढ़ने लगी वैसे-वैसे ही गौहत्या में भी बढ़ोतरी होती गई। ख़ास बात यह रही कि गौहत्या और सुअर हत्या की वजह से अंग्रेज़ों की हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने का भी मौका मिल गया। इसी दौरान हिन्दू संगठनों ने गौहत्या के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी। आखिरकार महारानी विक्टोरिया ने वायसराय लैंस डाऊन को पत्र लिखा। पत्र में महारानी ने कहा-''हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है, लेकिन हकीकत में यह हमारे खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा हम गौ हत्या कराते हैं। इसके जरिये ही हमारे सैनिकों को गौ मांस मुहैया हो
पाता है।''
आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र ने भी 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फ़रमान जारी किया था। साथ ही यह भी चेतावनी दी थी कि जो भी गौहत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा उसे मौत की सज़ा दी जाएगी। इसके बाद 1892 में देश के विभिन्न हिस्सों से सरकार को
हस्ताक्षर-पत्र भेजकर गौ हत्या पर रोक लगाने की मांग की जाने लगी। इन पत्रों पर हिन्दुओं के साथ मुसलमानों के भी हस्ताक्षर होते थे। इस समय भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच द्वारा देशभर के मुसलमानों के बीच एक हस्ताक्षर
अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें केंद्र सरकार से गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने और भारतीय गौवंश की रक्षा के लिए कठोर कानून बनाए जाने की मांग की गई है. गाय की रक्षा के लिए अपनी जान देने में भी भारतीय मुसलमान किसी से पीछे नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के गांव नंगला झंडा के डॉ. राशिद अली ने गौ तस्करों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ रखी थी, जिसके चलते 20 अक्टूबर 2003 को उन पर जानलेवा हमला किया गया और उनकी मौत हो गई। उन्होंने 1998 में गौ रक्षा का संकल्प लिया था और तभी से डॉक्टरी का पेशा छोड़कर
अपनी मुहिम में जुट गए थे.
गौवध को रोकने के लिए विभिन्न मुस्लिम संगठन भी सामने आए हैं। दारूल उलूम देवबंद ने एक फ़तवा जारी कर मुसलमानों से गौ हत्या न करने की अपील की है। दारूल उलूम देवबंद के फ़तवा विभाग के अध्यक्ष मुफती हबीबुर्रहमान का कहना है कि भारत में गाय को माता के रूप में पूजा जाता है। इसलिए मुसलमानों को
उनकी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए गौ हत्या से खुद को दूर रखना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि शरीयत किसी देश के क़ानून को तोड़ने का समर्थन नहीं करती.
भारत में गौ हत्या को रोकने के लिए ईमानदारी से प्रयास नहीं किए गए... मुसलमान तो गाय का गोश्त खाना छोड़ देंगे, लेकिन गाय के चमड़े का कारोबार करने वाले क्या गौ हत्या न कराने का संकल्प लेकर इस पेशे से हो रहे भारी
मुनाफ़े को छोड़ने के लिए तैयार हैं...? ऐसा नहीं है कि गाय का गोश्त सिर्फ़ मुसलमान ही खाते हैं...हकीक़त यही है कि ज़्यादातर गैर मुस्लिम ही गौ हत्या कराकर चांदी कूट रहे हैं......लेकिन उनके ख़िलाफ़ बोलने की
हिम्मत किसी में नहीं...हो सकता है अंदरूनी सांठ-गांठ हो... इस पेशे में मुसलमान तो छोटी मछलियां हैं...
युवा पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं...कई भाषाएं जानती हैं...अमर उजाला, दैनिक भास्कर और दूरदर्शन केंद्र समेत कई अन्य राष्ट्रीय समाचार-पत्रों में कई बरसों तक अपनी सेवाएं दी हैं...कॉलेज के वक़्त से ही रेडियो से भी जुड़ी रही हैं...इनके लेख देश-विदेश के प्रतिष्ठित विभिन्न समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं...फ़िलहाल उर्दू-हिन्दी में नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका 'पैगाम-ए-मादर- ए-वतन' की संपादक हैं..
प्रस्तुति: टी. सी. चन्दर
.......................................................................
यह पेज
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें