एक था शनिवार कला मेला
सन् 1982 में दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के चक्कर में सुरक्षा व्यवस्था के चलते प्रशासन को बहाना मिल गया और इसकी गाज गिरी कला मेले पर। इस तरह कला, कलाकार और आम लोगों को आपस में जोड़ने वाले एक अच्छे प्रयास ने दम तोड़ दिया।
देश की राजधानी के कुछ कलाकारों ने मिलकर कला और कलाकारों का आमजन से सीधा साक्षात्कार कराने के दिशा में एक बेहतरीन कार्य किया था। 80 के दशक में दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस स्थित सेन्ट्रल पार्क में एक अनूठी कला प्रदर्शनी के नियमित आयोजन का शुभारम्भ किया था। भारीभरकम कला दीर्घाओं के विपरीत खुले आकाश तले कलाकृतियों का प्रदर्शन और वहीं कलाकारों की उपस्थिति लोगों को बहुत पसन्द आयी। कलाकृतियों के साथ-साथ गिरिधर राठी की कविताओं और उनके साथ चित्रांकनों की प्रस्तुति भी एक अच्छा प्रयोग था।
स्थानीय कला प्रेमियों के अलावा देशी-विदेशी पर्यटकों को भी इस कला प्रदर्शन के आयोजन ने सहज ही आकर्षित किया। हर शनिवार को लगने वाले इस कला मेले या प्रदर्शनी का लोग इन्तजार करते थे। छोटे-बड़े ईंट-पत्थर के टुकड़ों और सीढ़ियों के सहारे टिकी कलाकृतियों का अवलोकन करते हुए दर्शक अनूठे आनन्द का अनुभव करते थे। वे पास ही जमीन पर बैठे कलाकारों से कला और उनकी कलाकृतियों के बारे में निःसंकोच बातें करते, तरह-तरह के प्रश्न करते और अपनी जिज्ञासा शान्त करते।
इस कला मेले के बारे में प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी खूब चर्चा हुई। हालांकि तब आज की भांति इतने सारे टीवी चैनल नहीं थे। दूरदर्शन पर शनिवार कला मेले को लेकर कार्यक्रम दिखाए जाते थे। स्थानीय अखबारों में इस खुले आकाश तले हर शनिवार आयोजित होने वाली कला प्रदर्शनी के बारे में छपता रहता था। इस प्रकार जानकारी पाकर दूर-पास के अनगिनत लोग कलाकृतियां देखने कनॉट प्लेस के सेन्ट्रल पार्क में आया करते थे। शनिवार या शनिवारीय कला मेला के नाम से जाना जाने वाला यह कला मेला काफी लोकप्रिय हो गया था। इसी प्रकार ललित कला महाविद्यालय के छात्रों और कुछ उत्साही युव कलाकारों ने चलती-फिरती कला प्रदर्शनी की शुरूआत भी की थी। ये लोग राजधानी के अलग-अलग भागों में हर शनिवार चित्र प्रदर्शनी लगाते थे।
इस कला मेले में चूंकि कलाकार अपनी कलाकृतियों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे अतः अनेक दर्शक अपने पोर्ट्रैट उनमें से कई कलाकारों से बनवाया करते थे। यही नहीं अनेक लोग अपने इष्ट मित्रों से मिलने के लिए इस कला मेले के स्थान ही तय कर देते थे। यहां जमीन आकर जमीन पर बैठकर अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करने वालों में अनेक जानेमाने कलाकार थे। अनिल करंजई, सूरज घई, गिरधर राठी, सपन विश्वास, सतीश चैहान, कार्टूनिस्ट चन्दर (यानी मैं, तब दिल्ली के ललित कला महाविद्यालय में बीएफ़ए का छात्र था), अशोक कुमार सिंह, अशेक कुमार आदि के अलावा ललित कला महाविद्यालय, जामिया मिल्लिया, शारदा वकील, शिल्प कला विद्यालय आदि के अनेक छात्र कलाकार यहां नियमित रूप से आया करते थे। इनके अलावा देशी-विदेशी पर्यटक और अन्य कला प्रेमियों का हर शनिवार अच्छा जमावड़ा रहता था।
जहां अनगिनत लोग इस प्रयास को एक अच्छी गतिविधि मानते थे। नयी दिल्ली नगर पालिका और पुलिस ने इस कला मेले को अनेक बार हटाने, उजाड़ने या बन्द कराने के लिए बहुत कोशिशें कीं पर कला प्रेमियों के सक्रिय और कड़े विरोध के चलते उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1982 में दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के चक्कर में सुरक्षा व्यवस्था के चलते प्रशासन को बहाना मिल गया और इसकी गाज गिरी कला मेले पर। इस तरह कला, कलाकार और आम लोगों को आपस में जोड़ने वाले एक अच्छे प्रयास ने दम तोड़ दिया।
एशियाई खेलों के समापन के बाद भी तमाम दिक्कतों के चलते पुनः शनिवार कला मेला शुरू नहीं हो सका। मगर लोगों के मन-मस्तिष्क में इतना समय बीत जाने के बाद भी शनिवारीय कला मेला विद्यमान है। अब भी मुझे कभी-कभी उस कला मेले को याद करने वाले कला प्कौरेमी मिल जाते हैं। न जाने कब कोई कलाकार इससे प्रेरणा लेकर पुनः शनिवारीय कला मेला जैसा कोई आयोजन शुरू कर दे!
• सभी चित्र: चन्दर
इस कला मेले में चूंकि कलाकार अपनी कलाकृतियों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे अतः अनेक दर्शक अपने पोर्ट्रैट उनमें से कई कलाकारों से बनवाया करते थे। यही नहीं अनेक लोग अपने इष्ट मित्रों से मिलने के लिए इस कला मेले के स्थान ही तय कर देते थे। यहां जमीन आकर जमीन पर बैठकर अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करने वालों में अनेक जानेमाने कलाकार थे।
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