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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

एफ़डीआई

ममता या तो यहाँ से आर या पार
• जगमोहन फ़ुटेला
अपने अपने राज्य में एफडीआई का विरोध भी सियासी मजबूरी है ही कइयों के लिए। ऐसे में मुलायम, नितीश, नवीन पटनायक, चौटाला, खुद ममता, कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मजबूरी में चल रहे करूणानिधि या जयललिता में से किसी एक और चंद्रबाबू नायडू जैसों के साथ मिल के अगर कोई मोर्चा बना सकें ममता तो वोट शेयर तो तब यूपीए और एनडीए का भी तब आज के 30 और 28 प्रतिशत से घट कर बड़ी आसानी से शायद 25 से भी नीचे आ लेगा।
मैं सोचता हूँ जो नवीन या उन के पिता बीजू पटनायक ने नहीं किया, करूणानिधि ने नहीं किया, बादल, चौटाला, चंद्रबाबू नायडू ने न किया। न बालासाहब ठाकरे ने। मुलायम और माया जो कर के भी कुछ हासिल नहीं कर पाए। महत्वाकांक्षा के साथ मिली ग्लैमरी चमक के साथ जयललिता ने भी जो नहीं किया, वो ममता बनर्जी क्यों कर रही हैं? क्यों उन्हें लगता है कि धमक वे देश में भी पैदा कर सकती हैं और उन्हें अब राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीति कर ही लेनी चाहिए? मान ही लेना चाहिए कि या तो बहुत मह्त्वाकांक्षिणी हैं या बहुत भोली हैं।
इस सब पे मंथन इस लिए इस लिए और भी ज़रूरी है कि वे जो कर रही हैं वो उनको पड़ा कोई दिमागी दौरा नहीं है। आज चढ़ा, कल उतर जाने वाला बुखार भी नहीं है। एफडीआई का मुद्दा भले उतना मज़बूत न हो उन का, इरादा मज़बूत है। लगता है उनके सलाहकारों ने सलाह तो ठीक ही दी है उन्हें। वे कांग्रेस का तो पता नहीं, कामरेडों का नुक्सान तो ज़रुर कर देंगी बंगाल के भीतर और बाहर भी। कभी वे सड़कों पे उतरते थे मंहगाई जैसे आर्थिक मुद्दों पे कांग्रेस के खिलाफ। आज ममता जंतर-मंतर पंहुची हुई हैं
कम्युनिस्टों को एक तरह से मुद्दाविहीन कर ही दिया है उन्होंने। बंगाल के भीतर उनकी ये छवि भी बन ही रही है उनकी कि अब ममता के कांग्रेस को छोड़ देने के बाद वामपंथी शायद फिर दामन थामेंगे कांग्रेस का बंगाल में। उनकी छवि का अच्छा ख़ासा कचरा कर रही है ममता की पार्टी बंगाल में। ऐसे में कांग्रेस की असली दुश्मन दिख के ममता कामरेडों को तो जैसे संदर्भहीन बना देने पर तुली हैं। इस अर्थ में एक बड़ी लड़ाई लड़ और उस में विजयी होती भी दिख रही हैं वे। लेकिन यक्ष प्रश्न फिर वही है। जब कोई क्षत्रप कामयाब नहीं हुआ किसी भी प्रदेश या अंचल का राष्ट्रीय स्तर पे, तो ममता वो प्रयोग करना ही क्यों चाह रहीं हैं? तब क्योंकि जब वो बड़ा जोखिम भरा भी है। ठीक से न हो पाए तो किसी हद तक आत्मघाती भी।
किसी भी प्रदेश के मुद्दे और आपको उस की राजनीति के शिखर तक भी ले आने के कारण होते हैं। पड़ोसी राज्य के साथ आपका कोई विवाद है तो किसी भी हद तक बोल या जा सकते हो आप अपने राज्य के लोगों को खुश करने के लिए। राष्ट्रीय राजनीति करनी हो तो उस राज्य में अपनी पार्टी की मजबूरियों, मुद्दों, राजनीति, हालत को भी देखना पड़ता है। यूं भी ठोस आर्थिक मुद्दों पर राजनीति कर सकते हो आप अपने बंगाल में। लेकिन पंजाब में मुद्दे जैसे होते ही नहीं हैं। पंजाब में तो पंजाब से बाहर के डेरों और बाबाओं की भी एक भूमिका होती है आपकी पार्टी को जितवाने या हरवाने में। भाषा और पहरावा भी एक वजह है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में तो जयललिता ने प्रचार किया नहीं कभी, लालू आये भी कांग्रेस का प्रचार करने तो कुछ नहीं कर पाए। संजय दत्त और राज बब्बर जैसे भीड़ बटोरू सितारे भी चौटाला का प्रचार करते रहे हैं हरियाणा में। आज दोनों वाया समाजवादी पार्टी कांग्रेस में हैं. सो, कोई विश्वसनीयता या कहें कि कोई अहमियत, इज्ज़त भी नहीं है उन की किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता की।
ममता ने भी जो भाषण दिया दिल्ली में कभी वे खुद भी सुनेंगी तो आधा उन की खुद समझ में भी नहीं आएगा। संवाद के लिए भाषा का महत्व है तो है. और वो भाषा उन्हें नहीं आती जिस से वे उत्तर भारत की जनता के साथ संवाद भी कर सकें। लेकिन जिन्हें खुद हिंदी नहीं आती उन जनार्दन द्विवेदी और राजीव शुक्ला जैसों को रख के अगर सोनिया गाँधी को भी हिंदी नहीं आयी और वो फिर भी कोई पद लिए बिना हिंदुस्तान पे राज कर सकती हैं तो फिर ममता क्यों नहीं? सवाल जायज़ है। लेकिन सोनिया ममता नहीं हैं। सोनिया को देश की सियासत भी विरासत में मिली है. ममता ने जो पाया वो खुद कमाया है। सोनिया अपने किन्हीं गुणों या उपलब्धियों की वजह से सत्ताधारी कांग्रेस की मुखिया नहीं हैं। वे न होंगी तो कल राहुल कांग्रेस की मजबूरी हो जायेंगे। लेकिन ममता का जो है बंगाल में कार्यकर्त्ता से लेकर सत्ता तक, सब ममता की वजह से और उन के साथ होने से है। डर ये है कि देश की राजनीति के चक्कर में वे कहीं बंगाल तो नहीं खो देंगी? और ये खतरा इस लिए है कि बंगाल के बाहर उन्हें वो रुतबा मिलने नहीं वाला है कि वापिस जा कर वे विजयी मुद्रा में दिख सकें। बंगाल के बाहर बंगाल की खाड़ी से गहरी समस्याएं हैं और वे बंगाल से अलग भी हैं। इस पर तुर्रा ये कि अभी तो उनके उत्तर भारतीय संगठन में वे लोग दिख रहे हैं जो खुद कांग्रेस में फुंके हुए कारतूस साबित हुए हैं। और सब से बड़ी बात ये है कि बंगाल के बाहर राज्यों में कांग्रेस का विकल्प अगर लोग अगर देखते भी हैं तो वो वे उन में नहीं देखते। और विशुद्ध चुनावी अंकगणित के हिसाब से देखें तो आप के काटे कांग्रेसी वोट फायदा तो उस राज्य में कांग्रेस के प्रमुख विपक्षी दल को ही पंहुचाते हैं। इस अर्थ में जब आपकी सारी मेहनत आज या कल वोटों, सीटों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या के रूप में दिखाई नहीं देती तो फिर खुद अपना संगठन भी देर सबेर बिखरने लगता है।
लोग बड़े गरजाऊ हैं। सत्ताधारी या सत्ता में आ सकने वाली पार्टी का झंडा गाड़ी पे लगाना उन का शौक नहीं, मजबूरी भी है। बंगाल के बाहर वे टीएमसी का नहीं लगाएंगे। और अगर टीएमसी ने बिना गाँव, पंचायत, ब्लाक जैसी तैयारी के अभी हिमाचल चुनाव लड़ने जैसी गलती कर दी तो फिर किसी उत्तरी राज्य में पैसे दे के क्या, पैसे ले के भी कोई टिकट लेने न आएगा। माया जो पिछले चार चार चुनाव लड़ के भी कुछ हासिल नहीं कर पाईं इधर के राज्यों में वो ममता चार महीनों की मशक्कत से हासिल कर लेना चाहती हैं तो फिर वे मां जैसी भोली हैं, माटी जैसी कच्ची हैं और मानुष जैसे गलत भी फैसले कर सकने वाली महिला तो हैं ही. लेकिन इस सब के बावजूद वे वो कर सकती हैं जो इस देश की राजनीति में कभी किसी ने नहीं किया. कम से आज तो कोई करता नहीं दीखता। और उस की ज़बरदस्त संभावना और ज़रूरत भी है। वे तीसरा मोर्चा बना सकती हैं। बना वो पहले भी। लेकिन उस की आज जैसी सख्त ज़रूरत कभी नहीं रही। यूपीए और एनडीए दोनों को तीस प्रतिशत से ऊपर वोट शेयर न देने वाले सर्वे छोडो। घोटालों पे घोटालों, उस पर राहुल गाँधी का कार्ड यूपी तक में न चल पाने और उस पे भी अन्ना, रामदेव जैसों की पैदा की जाग्रति और छवि तो थी ही। अब एफडीआई, मंहगाई भी आम आदमी को अपने आप आपका बना देने वाला मुद्दा है।
अपने अपने राज्य में एफडीआई का विरोध भी सियासी मजबूरी है ही कइयों के लिए। ऐसे में मुलायम, नितीश, नवीन पटनायक, चौटाला, खुद ममता, कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मजबूरी में चल रहे करूणानिधि या जयललिता में से किसी एक और चंद्रबाबू नायडू जैसों के साथ मिल के अगर कोई मोर्चा बना सकें ममता तो वोट शेयर तो तब यूपीए और एनडीए का भी तब आज के 30 और 28 प्रतिशत से घट कर बड़ी आसानी से शायद 25 से भी नीचे आ लेगा। बदला ही लेना है अगर कांग्रेस से तो फिर ये बड़ी मार होगी। और देश के राजनीतिक परिद्रश्य पे एक बड़ी भूमिका भी अदा करनी है उन को तो फिर वो स्थिति बड़ी संतोष दायिनी होगी। ये भी उन्हें करना है तो फिर इसी 2014 के चुनाव में कर लेना चाहिए। वरना आंध्र पे जब नायडू, तमिलनाडु पे करुणा और अम्मा, यूपी में माया या मुलायम, बिहार पे लालू, पंजाब पे अकालियों और हरियाणा पे चौटाला का पट्टा नहीं लिखा तो इस बात की भी क्या गारंटी है कि बंगाल पे राज हमेशा ममता ही करेंगी! ink-  http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2118:2012-10-01-19-10-58&catid=34:articles&Itemid=54

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